2. परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम किया

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2. God so loved the world

साप्ताहिक पाठ – उत्पत्ति, अध्याय 4-6; लूका, अध्याय 4-6

प्रश्‍नोत्‍तर के लिये पाठ – यशायाह, अध्याय 53

संसार को क्या को गया है?

हम सभी को इस बात में सहमत होना पडेगा कि जिस संसार में हम रहते हैं वह दोषयुक्त है। किसी भी दिन समाचार पत्र पढ़िये। हत्याओं, धोखा-धड़ी, अपराधों, लड़ाई झगड़े और युद्ध की संभावना के बारे में पढ़ेंगे।

पढ़ते पढ़ते हम इन सब बातों के इतने आदि हो गए हैं कि हमें इनसे कुछ फर्क ही नही पड़ता है। परन्तु यदि हम इनके विषय में सोचें तो हमें स्वयं से पूछना पड़ता है – यह सब क्यों?

जब ईश्वर ने सृष्टि की रचना की, उसने जगत को मनुष्यों के रहने के लिये दोषरहित बनाया। ईश्वर का अभिप्राय बहुत ही अच्छा था परन्तु आज मनुष्य संकट और अनिश्चयता के संसार में रह रहा है।

विपत्ति का आरम्भ

आदि में परमेश्वर ने पहिले मनुष्य, आदम, को बनाया। परमेश्वर ने आदम को अपनी विधियाँ सिखायी। उसने आदम को एक सरल आदेश भी दिया और जिस प्रकार एक पिता अपने बच्चों से उसकी आज्ञाओं के पालन की आशा करता है, उसी प्रकार परमेश्वर भी आदम से उसकी आज्ञा के पालन की आशा करता था। परमेश्वर ने आदम से कहा,

‘तू वाटिका के सब वृक्षों का फल बिना खटके खा सकता है; पर भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना: क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाएगा उसी दिन अवश्य मर जाएगा।’ (उत्पत्ति, अध्याय 2, 16 और 17 पद)

आदम ने परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया। आज्ञा उल्लंघन के परिणाम स्वरुप अन्त में आदम की मृत्‍यु हुई जैसा कि परमेश्वर ने कहा था। आदम के लिए दुबारा पाप करना सरल हो गया। इसके अतिरिक्त उसकी सारी सन्तान पाप करने की प्रवृत्ति के साथ पैदा हुई। रोमियों के अध्याय 5 और पद 12 में हम पढ़ते हैं,

‘इसलिये जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, क्योंकि सब ने पाप किया।’ (रोमियों 5:12)

हम देखते हैं कि आदम ने पाप किया और इसलिये कि वह पापी था उसकी मृत्यु हुई। हम भी पाप करते हैं और मर जाते हैं। जब आपने यशायाह के अध्याय को पढ़ा, क्या आपने छटवें पद के शब्दों पर ध्यान दिया?

‘हम तो सब के सब भेड़ों के समान भटक गए थे, हम में से हर एक ने अपना अपना मार्ग लिया।’ (यशायाह 53:6)

यिर्मयाह भविष्यद्वक्ता भी यही बात हम से दूसरे शब्दों में कहता है,

‘मन तो सब वस्तुओं से अधिक धोखा देनेवाला होता है, उस में असाध्य रोग लगा है।’ (यिर्मयाह, अध्याय 17, पद 9)

हम बाइबिल में इनके विषय में पढ़ते हैं और हम खुद भी जानते हैं कि वे सच हैं। इस हेतु पौलुस प्रेरित ने कहा,

‘क्योंकि मैं जानता हूँ कि मुझ में अर्थात्‍मेरे शरीर में कोई अच्छी वस्तु वास नहीं करती।’ (रोमियों, अध्याय 7, पद 18)

हम सबको पौलुस से सहमत होना पडेगा – खेद केवल यह है कि हम कभी वैसा अच्छा नहीं बनते हैं जैसा अच्छा हम बनाना चाहते हैं।

इसका सुधार क्या है?

पाप करने के पहले आदम परमेश्वर की संगति में था। पाप करने के पश्चात परमेश्वर से उसकी संगति टूट गई। आदम पापी ठहरा और इस कारण अपने बनाने वाले के साथ उसकी संगति नहीं हो सकती थी।

शायद आदम नहीं जानता था कि वह कितनी बडी समस्‍या की शुरूआत कर रहा था। उस समय से आज हजारों वर्षो तक उसकी हर एक सन्तान (आप और मैं भी उसमें शामिल हैं) उसके नक्शे कदम पर चली है और पाप किया है (केवल यीशु को छोड़) और इसलिये कि हम सब पापी हैं हमारा परमेश्वर से नाता टूट गया हैं। कैसी आशाहीन दयनीय दशा! मनुष्य अपने आपको बचाने के लिये कुछ नहीं कर सकता था।

परन्तु परमेश्वर ने अपने असीम प्रेम और दया के कारण मनुष्यों को उनके पाप में मरने के लिये नही छोड़ा। परमेश्‍वर ने एक मार्ग दिया जिसमें से होकर मनुष्य उसके पास आ सके और जीवन पा सके। हम यूहन्ना के तीसरे अध्याय में पढ़ते हैं

‘क्योंकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वह नाश न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए।’ (यूहन्ना 3:16)

किसी भी चीज़ का बनाना सरल को जाता है यदि आपके पास उसका कोई सांचा या नमूना हो। बच्चा अपने माता पिता की नकल करके बोलना सीखता है। इसी तरह हम यीशु को अपना आदर्श मानकर एक अच्‍छे इन्‍सान बन सकते है – यीशु मसीह के विषय में अधिक से अधिक जानकर और उनके समान बनने का प्रयास करके।

जब हम यीशु को देखते है तो हम जान जाते हैं कि परमेश्वर हमसे क्‍या चाहता है कि हम कैसा बने।

यीशु और क्रूस (सलीब)

यीशु मसीह ने कभी पाप नहीं किया। उसने सदैव वे ही काम किये जिनसे परमेश्वर प्रसन्न हुआ। और तब भी उन्होंने उसे शूली पर चढ़ा दिया! परमेश्वर ने उन्‍हें इस विकट मृत्यु से बचाया नहीं। जिस पद का यशायाह की पुस्तक से हम उल्लेख कर चुके हैं, उस पद में आगे लिखा है,

‘यहोवा ने हम सभों के अधर्म का बोझ उसी पर लाद दिया।’ (यशायाह 53:6)

बाइबिल हमें साफ रीति से सिखाती है कि यीशु ने अपने पिता की इच्छा का पालन करते हुए, क्रूस की मौत सह ली ताकि उसकी मृत्यु द्वारा हम अपने पापों की क्षमा पा सकें और जीवन की आशा रख सकें।

इसमें कुछ अद्भभुत बात है – अपने एकलौते पुत्र को देने में परमेश्वर का प्रेम और उस पुत्र का अपने पिता की आज्ञा का पालन अदभुत है। उस पर विश्वास रखते हुए हम जीवन पा सकते हैं। हम प्राय: इस विषय में नहीं सोचते हैं। लेकिन जब हम बाइबिल का अध्‍ययन और खोज करेंगे तो हम बार बार इस विषय पर आयेंगे, क्‍योंकि यह मसीहियों की आशा का केन्‍द्र बिन्‍दु है।

उस पर विश्वास रखना

यूहन्‍ना का तीसरा अध्याय और उसका सोलवां पद हमें बताता है कि

‘जो कोई उस (यीशु) पर विश्वास करे वह नाश न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए।’ (यूहन्ना 3:16)

तो क्‍या इसका अर्थ यह है कि सिर्फ कहने से कि “मैं यीशु पर विश्वास रखता हूँ”, हम पाप और मृत्यु से बच जाएँगे?

शुरू में ऐसा लग सकता है परन्तु आइये इस पर सोचें। यदि हम किसी बात में सचमुच विश्वास करते हैं तो क्या हम विश्वास के अनुसार वैसा ही नहीं करते हैं? यदि हमारा बच्चा बीमार हो और हम विश्वास करते हैं कि डॉक्टर उसे बचा सकता है, तो हम सिर्फ इतना ही कहकर कि, "मैं डॉक्टर में विश्वास रखता हूँ", हाथ पर हाथ धरे नही रह जाते हैं और बच्चे को तड़पने दें। बिल्‍कुल नही। बल्कि हम डॉक्टर को बुलाते हैं और इसलिये कि हम उस पर विश्वास रखते हैं, जो कुछ वह कहता है हम करते हैं।

ठीक यही विश्‍वास हमें प्रभु यीशु में रखना है। यदि हम सचमुच में उस पर विश्वास रखते हैं, तो हम पता लगाना चाहिये कि वे हमसे क्‍या चाहते है कि हम करें, और अपनी पूरी सामर्थ के साथ वैसा ही काम करें।यदि हम केवल ऐसा ही करें, तो हम अपने आप को उनके बीच में पाने की आशा कर सकते हैं जो कि नाश नही होंगे परन्तु अनन्त जीवन के भागी होंगे।

सारांश

  1. आदम, मानव जाति के पिता, ने पाप किया और इस कारण परमेश्वर ने उसकी मृत्यु होने दी।
  2. हम आदम के समान है, हम भी पाप करते हैं और इसलिये हम मरते हैं।
  3. परमेश्वर हमारे पाप क्षमा कर देगा और हमें अनन्त जीवन देगा, यदि हम यीशु पर विश्वास रखते हैं।
  4. यदि हम व़ास्‍तव में यीशु पर विश्वास रखते हैं, तो हम वैसा ही करना चाहेंगे जैसा वह हमसे कहता है।