Dipak Issue 3 (August 2009)

तेरा वचन मेरे पांव के लिये दीपक, और मेरे मार्ग के लिये उजियाला है। भजन संहिता 119:105

दया

क्या हममें से किसी ने कभी अत्यधिक दया दर्शाने पर रत्ति भर भी अफसोस किया है, लेकिन जब हम जल्दी में कोई कटु शब्द कह देते है तो हम दुखी अवश्य होते है। जब हमें ठेस पहुंचती है तो हमेशा इन्हीं तरीको से हम अपनी भावनाओं को प्रकट करते है, और अधिकतर इसी तरह हम अपना प्यार या प्यार की कमी को दर्शातें है।

दया के शब्द हद्वय की मीठी आवाज होते है, यदि एक दूसरे से हमारा व्यवहार निष्ठुर है, तो हमारा परमेश्वर से प्रेम के विषय में और अपने साथियों से प्रेम के विषय में बातें करना व्यर्थ है।

प्राय: जिनसे हमें अधिक प्रेम रखना चाहिये, उनके प्रति हम कम दया दिखाते है। क्या सुबह के समय हम एक दूसरे को प्रेम से अभिवादन करते है या रूखी भाषा से चिल्लाते है "अखबार कहाँ है?" या "नाश्ता तैयार क्यों नहीं हुआ?"

दया खसरे की बिमारी के समान अति संक्रामक है, यदि हम दया के शब्दों को जीवन रूपी पानी पर डालेगें तो हम इन्हें वापस पायेगें। दया केवल बातें करने का विषय नहीं है, यह कार्य करने का एक तरीका है, जिसकी आज्ञा सीधे परमेश्वर की ओर से है। पौलुस कहता है, "परस्पर एक दूसरे के प्रति दयालु और करूणावान बनो। तथा आपस में एक दूसरे के अपराधों को वैसे ही क्षमा करो जैसे मसीह के द्वारा तुमको परमेश्वर ने भी क्षमा किया है।"

हम आदतन प्राणी है, और यह सम्भव है कि हम अपनी छोटी मोटी समस्याओं और दुखों में पड़कर दया को भूल जाये। हम स्वंय तो यह कह सकते है कि हम दयालु और अच्छे है पर कोई दूसरा हमारे कामों को देखकर ऐसा नहीं कहता। यदि यह बात हम पर लागू होती है, तो आओ इसको स्वंय मान ले और दयालु होने तथा कोमल हद्वय वाले बनने के लिए एक नयी शुरूआत करें और क्षमा करने वाले बने और जहां कही भी जाये वहां अपना प्रेम प्रदर्शित करें। प्राय: यह देखकर आपको बहुत ही आश्चर्य होगा कि जब आप किसी के साथ दया करेगें तो वह बदले में आपसे बढ़कर दया आपको दिखायेगा।

हम सभी को समस्यायें, दु:ख, और मनोव्यथायें होती है और हम यह नहीं जानते कि दया का एक शब्द क्या काम करता है।यह किसी हताश की हिम्मत बढ़ा सकता है। हम जानते है कि यह हमारे जीवन को हल्का और सौम्य कर देगा और हम अपने प्रभु यीशु मसीह के व्यक्तित्व को अधिक नजदीकी से दर्शायेगें। यीशु मसीह ने कहा, "तुम परम परमेश्वर की सन्तान बनोगें क्योंकि परमेश्वर कृतघ्नों और दुष्ट लोगों पर भी दया करता है।"

इसलिए हमें कृतघ्नों पर दया करनी चाहिये। हमें अपने दैनिक जीवन के कार्यो में मसीहत दिखानी चाहिये, नहीं तो हम ढोंगीं कहलायेगें।

“क्योंकि तुम परमेश्वर के चुने हुए पवित्र और प्रिय जन हो इसलिए सहानुभूति, दया, नम्रता, कोमलता और धीरज को धारण करो; तुम्हें आपस में जब कभी किसी से कोई कष्ट हो तो एक दूसरे की सह लो और परस्पर एक दूसरे को मुक्त भाव से क्षमा कर दो। तुम्हें आपस में एक दूसरे को ऐसे ही क्षमा कर देना चाहिये जैसे मसीह में परमेश्वर ने तुम्हें मुक्त भाव से क्षमा कर दिया। इन बातों के अतिरिक्त प्रेम को धारण करो। प्रेम ही सबको आपस में बांधता और परिपूर्ण करता है।

जब हम पृथ्वी के न्यायी के सम्मुख खड़े होगें तो हमें अधिक दयालु होने के लिए पछताना नहीं पडे़गा।

दया’ (Kindness) is taken from ‘Minute Meditations’ by Robert J. Lloyd

यीशु मसीह का पहाडी उपदेश

हमें किस प्रकार का जीवन जीना चाहिये, इस विषय पर यीशु मसीह ने एक बहुत ही स्‍पष्‍ट और व्यवहारिक सलाह दी। उनका सबसे प्रसिद्ध उपदेश मत्ती 5-7 में दिया गया ``पहाडी उपदेश´´ है। कल्पना कीजिए कि आप 2000 वर्ष पूर्व यीशु मसीह के साथ उस पर्वत पर है। सैकडो लोग वहां आपके साथ है, और सभी बड़ी उत्सुकता से सुन रहे है। यीशु मसीह ने आपके मन के विचारों को भांप लिया है। धार्मिक अगुवे कुछ अलग और अवास्तविक लगते है, लेकिन यहां स्वंय यीशु मसीह, बड़े ही साधारण और अर्थपूर्ण शब्दों में आपको बता रहे है कि परमेश्वर क्या चाहता है।

धन्य है वो... मत्ती 5:3-12

सबसे पहले यीशु मसीह उन लोगों की सूचि देते है जो धन्य होगें। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि वे लोग जो धन्य होगें, इस संसार के मानकों के अनुसार बहुत अच्छे या सफल नहीं है। इस प्रकार जीने के लिए जीवन में एक मजबूत उद्देश्य और एक साफ लक्ष्य की आवश्यकता होती है। लेकिन जो ईश्वरीय जीवन जीते है वे धन्य होगें और उनके मन में शान्ति होगी और परमेश्वर के परिवार का हिस्सा होने और उसके राज्य में प्रवेश करने का आनन्द उन्हें मिलेगा।

  1. ``मन के दीन´´ होने का क्या अर्थ है?
  2. ``नम्र´´ होने का क्या अर्थ है? `नम्र होना´ और कमजोर होने में क्या अन्तर है? बाईबिल का कौन सा चरित्र अपनी नम्रता के लिए जाना जाता है?
  3. प्रत्येक आशीष के लिए एक प्रतिफल क्यों दिया गया है?
  4. इनमें से कौन सा गुण प्रदर्शित करना आपके लिए कठिन है? और इस गुण का विकास करने के लिए आप क्या कर सकते है?

आगे बढ़ना मत्ती 5:13-16

आगे यीशु मसीह अपने अनुसरण करने वालो को कार्य करने के लिए कहते है? वे बताते है कि विश्वासी लोगों को अच्छी दशा के नमक के समान होना चाहिये, और कहते है कि विश्वासियों को अपने जीवन में इस उदाहरण को लागू करना चाहिये। यीशु मसीह ने हमें शिष्य होने का हक दिया है, और हमें इस बात को आगे बढ़ाना चाहिये।

  1. हम किस प्रकार नमक के समान है?
  2. मत्ती 5:16, मत्ती 6:2-4 से किस प्रकार मेल खाता है?

परमेश्वर के मार्ग में जीना मत्ती 5:17-20

यीशु मसीह एक विश्वासी के जीवन में मूसा की व्यवस्था के महत्व को जोर देकर बताते है। वे परमेश्वर की व्यवस्था को तोड़ने के विषय में चेतावनी देते है, और कहते है कि जो उस व्यवस्था पर चलते है और उसे सिखाते है वे परमेश्वर के राज्य के अधिकारी होगें।

  1. मत्ती 5:18 में ``पूरा करने´´ का क्या अर्थ है?
  2. हम मत्ती 5:18-19 को, नये नियम की इस बात से कि अब हमें सब्त के दिन और पुरूषों के खतने को और अधिक मानने की आवश्यकता नहीं है, किस प्रकार जोड़ सकते है?

कार्य और विचार मत्ती 5:21-32

यीशु मसीह निश्चय ही मूसा की छठी और सातवी आज्ञा के प्रति लापरवाह होने के लिए नहीं कहते है। मूसा ने कहा, ``हत्या न करना´´, यीशु मसीह न केवल इससे सहमत थे बल्कि क्रोध और अपमान, हत्या के समान है, इस के लिए भी चेतावनी देते है, और इसलिए तुम्हें सावधान रहना चाहिये – और ऐसा करने पर भी तुम्हारा न्याय उसी प्रकार होगा जैसे हत्या करने पर।

मूसा ने यह भी कहा, ``व्यभिचार न करना।´´ यीशु मसीह इससे सहमत है और इस आज्ञा को आगे बढाते हुए अपने शिष्यों को चेतावनी देते है कि इसके विषय में सोचना भी नही। बुरे विचार बुराई करने के समान ही है। परमेश्वर आपके मनों को जानता है और वह न्याय करेगा।

  1. यदि कोई आप पर मुकदमा करना चाहता है, तो आपका उत्तर क्या होगा? देखें 5:25,40।
  2. इस बात से यीशु मसीह का क्या अर्थ है,जब वे कहते है कि, ``अपनी आँख निकालकर फेंक दे´´ और ``अपना हाथ कांट कर फेंक दे´´ (मत्ती 5:29-30)? इसे हम व्यवहारिक रूप में कैसे अपना सकते है?

वचन के पक्के होना मत्ती 5:33-37

यीशु मसीह शपथ के विषय में बताते है कि किसी बात की सत्‍यता बताने के लिए भी शपथ नहीं खानी चाहिये। एक शिष्य की बात हां की हां और नहीं की नहीं होनी चाहिये। यह सुनने में जैसा लगता है उससे थोड़ा कठिन है। प्राय: आप कहते है कि आप ऐसा करेगें, लेकिन परिस्थिति विषम होने के कारण आप वैसा नही कर पाते। एक सच्चा विश्वासी जो कहता है वो करता है – वे नहीं बदलते क्योंकि यह आसान है।

  1. आज लोग किस चीज की शपथ खाते है?
  2. यदि अदालत में आपको शपथ खाने के लिए कहा जाये तो आप क्या करेगें?
  3. आपने अपने मित्र से कही पर किसी विशेष समय मिलने का वायदा किया, लेकिन आपके सर में दर्द होने के कारण आपको देर हो जाती है। तो आप क्या करेगें। क्या ऐसी कोई परिस्थिति है जब हम ऐसे किये गये वायदे को तोड़ सकते है?

अपने पड़ोसी से प्रेम करना मत्ती 5:38-48

आगे यीशु मसीह प्रेम और बदला लेने के विषय में बताते है। मूसा ने बदला लेने की अनुमति दी (यद्यपि उसने इसके लिए बाध्य नही किया) लेकिन यीशु मसीह ने ऐसा करने के लिए मना किया। यीशु मसीह `` दूसरा गाल फेरने´´ जो तुझ पर मुकदमा करे उसके लाभ की सोचने, नालिश करने वाले को और अधिक देने की शिक्षा देते है।

  1. कुछ लोग तर्क करते है कि यीशु मसीह की इन बातों का शाब्दिक अर्थ नहीं है। आप इस विषय में क्या सोचते है?
  2. कल्पना कीजिये कि कोई आपसे आपकी नई और महंगी कार उधार मागंता है। आप यह जानते है कि वो इसका ध्यान नहीं रखेगा। तो क्या 5:42 यहां लागू होता है? क्या आप अपनी कार उधार देगें?

दिखावा मत्ती 6:1-18

यीशु मसीह दिखावे के लिए किये जाने वाले कामों से होने वाले खतरे से सावधान रहने के लिए कहते है। सबसे पहले वे दयालु और उदार बनने के लिए कहते है, उसके बाद प्रार्थना करने के लिए कहते है, और अन्त में उपवास रखने के लिए कहते है। यीशु मसीह इन बातों को करने के लिए आपको उपदेश देते है, ना कि ऐसा दिखावा करने के लिए। वे आगे कहते है कि इन बातों को गुप्त में किया कर ताकि दूसरे इनको न देखें।

  1. मान लिजिये आप एक रेस्टोरेन्ट में मित्रों के साथ खाना खा रहे है। क्या आप सार्वजनिक रूप से या व्यक्तिगत रूप से प्रार्थना करेगे। क्या पद 6:5-6 इससे सम्बन्धित है?
  2. पद 6:16-18 में यीशु मसीह शिष्यों को उपवास रखने के लिए कहते है। क्या आपने कभी उपवास रखा है? यदि हां, तो इससे आपको कितनी मदद मिली? नये नियम में उपवास से सम्बन्धित कुछ दूसरे पदों को खोजिये और उन पर विचार किजिये कि क्या यह शिष्यों को करना चाहिये।

धन मत्ती 6:19-34

यीशु मसीह साफ रीति से बताते है: ``आप धन और परमेश्वर दोनों की सेवा नहीं कर सकते।´´ वे कहते है, ``अपने लिए पृथ्वी पर धन इकट्ठा न करो... परन्तु अपने लिए स्वर्ग में धन इकट्ठा करो...´´ वे चेतावनी देते है कि दूसरी चीजो- खाने और पीने, कपड़े और यहां तक कि अपनी आयु के विषय में चिन्ता न करो।

  1. आप कैसे बता सकते है कि आपका धन कहां है?
  2. धन की सेवा करना कैसे सम्भव है?

दूसरे लोगों के विषय में निर्णय लेना मत्ती 7:1-6

अपने स्वंय के व्यवहार पर ध्यान दिये बिना, दूसरों के मसीह जीवन के विषय में आलोचना करना आसान होता है।

  1. पद 1-5 की तुलना पद 6 और पद 16 से कीजिये? और यूहन्ना 7:24 को भी देखियें। यदि दूसरों के विषय में निर्णय लेना हमेशा गलत नहीं होता है, तो यहां यीशु मसीह किस विषय में मनुष्य को दोषी ठहरा रहे है?
  2. पद 6 को कब व्यवहार में लाना चाहिये?

लेना और देना मत्ती 7:7-12

यीशु मसीह फिर से पद 7 में, प्रार्थना के महत्व पर जोर देते है:

``मांगो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूंढ़ो, तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा।´´

जिस प्रकार परमेश्वर इन बातों को तुम्हारे लिये करता है, ठीक वैसे ही तुम्हें भी उनको देना चाहिये जो मांगते है, फिर चाहे वो तुम्हारें परिवार के लोग हो या कोई गरीब हो या कोई दूसरा हो। यदि तुम चाहते हो कि जब परमेश्वर न्याय करे तो तुम पर दया की जाये तो, तुम भी दूसरों पर दया करो।

  1. पिछले दिनों में आपने परमेश्वर से किस बात के लिए प्रार्थना की?
  2. क्या जो भी आप परमेश्वर से मांगते हो वह हमेशा आपको देता है? यदि नहीं, तो क्यों?

एक अच्छी नींव मत्ती 7:13-27

एक सही मार्ग है और एक गलत मार्ग है। बहुत से आलसी लोग एक आसान मार्ग को खोजते है, जो इस संसार का मार्ग होता है। बहुत से लोग ईश्वरीय जीवन जीना नहीं चाहते। परमेश्वर ने आदेश दिया है कि जो लोग ईश्वरीय जीवन जीना नहीं चाहते वे नाश होगें। परमेश्वर ऐसे परिवर्तन को नहीं चाहता है जो स्‍वेच्‍छा से उसकी आज्ञा पालन न करना चाहें।

यीशु मसीह चेतावनी देते है कि, कुछ लोग चेलों के समान बातें करेगें लेकिन वास्तव में झूठे भविष्यवक्ता या सिखाने वाले होगें। यीशु मसीह कहते है कि, ``उन के फलों से तुम उन्हें पहचान लोगे।´´ जो लोग यीशु मसीह और उनकी आज्ञाओं का पालन कर रहे है वे अच्छा फल देते है। वे शान्तिपूर्ण है, वे सन्तुष्ट है, उन्हें इस बात का निश्चय है कि परमेश्वर उनके साथ है, क्योंकि उनका जीवन परमेश्वर के वचन पर आधारित है।

और अपने अन्तिम शब्दों में यीशु मसीह दो ऐसे लोगों की कहानी सुनाते है जिन्होनें अपने घर बनाये। एक ने अपना घर चट्टान पर बनाया और दूसरे ने रेत पर। जब बाढ़ आयी तो चट्टान पर बना घर नही गिरा, जबकि दूसरा रेत पर बना घर गिरकर सत्यानाश हो गया। इन दोनों में बहुत ही साधारण अन्तर था: उन दोनों ने परमेश्वर के वचन को सुना था, लेकिन केवल एक ने उसको सुना और उसका पालन किया। यह हमारे अपने ऊपर है कि हम सुने और आज्ञा माने।

  1. पद 7:24-27 किस प्रकार के लोगों के लिए है? दोनों घरों में क्या अन्तर था? ठीक घर बनाना तथा मूर्खता पूर्वक घर बनाना किस प्रकार सम्भव है?
  2. आप यह कैसे बता सकते हो कि झूठा भविष्यवक्ता कौन है (पद 7:15-20)? व्यवस्थाविवरण 13:1-5 और 1 यूहन्ना 4:1-6 की तुलना कीजिये। क्या आप आज के किसी झूठे भविष्यवक्ता के विषय में सोच सकते है?

सारांश

यीशु मसीह द्वारा बताये गये मार्ग पर चलना, चुनौती पूर्ण होने के साथ साथ प्रतिफल देने वाला भी है। इसमें निम्न बाते सम्मिम्मि‍लित है:

  • केवल अपने कामों पर ही नहीं बल्कि विचारों पर भी नियन्त्रण करना।
  • दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार करना जैसा आप अपने लिए दूसरों से चाहते हो।
  • जीवन के मार्ग पर चलना।
  • हमेशा अपनी कही बात पर बने रहना।
  • गुप्त में भले काम करना न कि लोगों को दिखाने के लिए।
  • धन पर नहीं बल्कि परमेश्वर पर विश्वास रखना।
  • ढोंगी होने और दूसरों के विषय में निर्णय करने में सावधान रहना।
  • निरन्तर प्रार्थना में लगे रहना।
  • उदार होना।
  • यीशु मसीह में एक मजबूत नींव रखना।

‘यीशु मसीह का पहाडी उपदेश’ (Jesus’ Sermon on the Mount) is from ‘The Way of Life’, ed. by Rob J. Hyndman

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