Dipak Issue 2 (May 2009)

तेरा वचन मेरे पांव के लिये दीपक, और मेरे मार्ग के लिये उजियाला है। भजन संहिता 119:105

आप कहाँ जा रहे है?

दिवंगत चाल्र्स एफ. केटरिंग ने यह अवलोकन किया कि, "हम सब को अपने भविष्य के विषय में दिलचस्पी होनी चाहिये, क्योंकि हमें अपना आगे का जीवन वहां गुजारना है।" जबकि यह उचित लगता है, कि हम भविष्य के प्रति ध्यान दें, देखने में आता है कि कुछ लोग ऐसे भी है, जिनके बारे में सोचना भी

कठिन है कि, वे ऐसे ही जीवन जी रहे है। अधिकतर लोग ऐसा जीवन जीते दिखाई देते है कि मानो कल आयेगा ही नहीं। बचत और बुढापें जैसी बातें के सम्‍बन्‍ध में सोचना एक अच्‍छी बात है, लेकिन जब बात धर्म की आती है तो इस पर ओर अधिक उच्‍चस्‍तर और सत्‍यता से विचार करना चाहिये।

वे सभी चीजें जो पैदा हुयी है, जिनको हम जानते और देखते है, भविष्य में समाप्त होनी है, सुलेमान ने कहा, "जीवित लोग जानते है कि उन्हें मरना है। किन्तु मरे हुए तो कुछ भी नही जानते।"

इसके बावजूद भी, अधिकांश लोग इस प्रकार का व्यवहार करते है कि "इस विषय में मत सोचो, और ऐसा नही होगा।" उनकी दिलचस्पी मृत्यु के दिन तक बहुत सी सांसारिक वस्तुओं के विषय में योजना बनाने में होती है।

मनौवैज्ञानिक बताते है कि कुछ लोग जीवन में सफल होने की आदत बना लेते है। कुछ लोगों का लक्ष्‍य स्पष्ट नहीं

होता है, वे नहीं जानते कि वे कहाँ और क्यों जा रहे है, और तो भी वे वहां जाने की आशा रखते है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ लोग अपनी मृत्युशैय्या पर आत्मिक रूप से दिवालिये होकर पहुंचते है।

किसी भी जगह पहुचँना हमारे लिए तब तक असम्भव होता है जब तक कि हम यह नहीं जानते कि हम कहाँ जाना चाहते है। किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उससे सम्बन्धित सभी अनिश्चितताओं को परिभाषित करने की आवश्यकता होती है, जैसे - हम किस लिए परिश्रम कर रहे है और इसे पूरा करने पर क्या होगा। यह आश्चर्यजनक है कि कुछ लोग जीवन में हर चीज के लिए ऐसा कैसे करते है। यहां तक कि सांसारिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी सफलता पाने के लिए ऐसा करने की आवश्यकता होती है। तो आओ हम इस आशा के साथ बुद्धिमान बने कि हम अपने मन को सांसारिक चीजों से परे की चीजों के लिए तैयार करें, “लेकिन यदि हम सफलता पाना चाहते है तो हमें इन्हीं मूलभूत सिद्धान्तों का अनुसरण करने की आवश्यकता है।"

दाऊद कहता है, कि, "हम अदभुत रीति से बनाये गये है।" जितना अधिक हम अपने विषय में जानेगें उतना ही अधिक हम इस बात को समझेगें। परमेश्वर ने हमें आश्चर्यजनक सामर्थ्‍य दी है, जिनको हम कभी कभार ही कही प्रयोग करते है।

हमारा लक्ष्य क्या है? हम उसको प्राप्त करने के लिए क्या कर रहे है? जबकि हम में से प्रत्येक मृत्यु की ओर अग्रसर है, तो ऐसे में निश्चय ही यीशु मसीह की वापसी पर अनन्त जीवन पाने के लक्ष्य की कल्पना करना अच्छा है। हमें जीवन में इस मूल्यवान लक्ष्य को पाने के लिए प्रयत्‍न करना है। अन्य सभी प्रयत्‍न व्‍यर्थ है, जिनके अन्त में कोई लाभ नहीं मिलता क्योंकि सभी मरते है और "उनका सारा धन दूसरों के हाथ में चला जाता है।"

पौलुस कहता है कि हमें अच्छे कार्य करते हुए सहनशीलता से इस लक्ष्य को पाने के लिए प्रयासरत रहना है। गौरव, सम्मान और अमरता पाने का यही एक रास्ता है। ईश्वरीय गौरव, सम्मान और अमरता पाने से और अधिक हमारी हा‍द्विक इच्‍छा क्या होगी? यदि हम इसको खोजेगें तो हम इसे पायेगें। हम यह कैसे कर सकते है? सबसे पहले हमें किसी भी दूसरी चीज से अधिक इसको चाहना है, क्योंकि निश्चय ही जहां हमारा धन का भण्डार होगा, वही हमारा मन भी लगा रहेगा। जब तक परमेश्वर का राज्य हमारे जीवन में वास्तविक रूप में नहीं आ जाता, तब तक हमें परमेश्‍वर के वचन (बाईबिल) को पढते रहने की आवश्यकता है, हम अपनी आखों को बंद करके उस गौरव, सम्मान और आनन्द की कल्पना कर सकते है, जिसकी हमें प्रतिक्षा है। हमें अपनी दिशा को इस लक्ष्य की ओर निर्धारित करने की आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे एक हल चलाने वाला खेत के अन्त में बने निशान की ओर अपना लक्ष्य निर्धारित करके हल को सीधी रेखा में चलाता है। जैसे कि यीशु मसीह ने कहा कि, "ऐसा कोई भी जो हल पर हाथ रखकर पीछे की ओर देखता है, परमेश्वर के राज्य के योग्य नहीं है।" परमेश्‍वर के राज्‍य को अपने जीवन का लक्ष्य बनाये बिना, और इसे पाने के लिए जिन दूसरी चीजों को त्यागने की आवश्यकता हो, उन्हें त्यागें बिना, हम परमेश्वर के राज्य में स्थान नहीं पा सकते है। पौलुस हमें चेतावनी देता है कि, "आओ बाधा पहुँचाने वाली प्रत्येक वस्तु को और उस पाप को जो सहज में ही हमें उलझा लेता है झटक फेकें और वह दौड़ जो हमें दौड़नी है, आओं धीरज के साथ उसे दौडे़।" यदि हम सांसारिक चीजों को अपने पीछे खीचेगें तो वे हमें, यीशु मसीह में परमेश्वर की उस ऊँची बुलाहट को पाने के हमारे लक्ष्य से, हमें भटका देगीं और हम उससे वचिंत रह जायेगें। इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है, यद्यपि इसे कमाया नहीं जा सकता। यह परमेश्वर द्वारा दिये जाने वाला उपहार है, और वह हममें से प्रत्येक को यह उपहार देना चाहता है और यदि हम इसे पाना चाहते है तो हमें इसे अपने सम्पूर्ण मन से खोजना चाहिये।

‘आप कहाँ जा रहे है?’ (Where are you going?) is taken from ‘Minute Meditations’ by Robert J. Lloyd

क्‍या आप जानते थे?

जब नूह और उसका परिवार जहाज में थे तो चालीस दिन और चालीस रात तक वर्षा होती रही। वास्‍तव में वे लोग जहाज में एक वर्ष से भी अधिक समय तक जहाज में रहे। चारों ओर इतना पानी था कि यह पानी सूखने में इतना समय लग गया और उसके बाद ही सूखी भूमि दिखाई दी, ताकि वे लोग उस पर चल सके। देखें उत्‍पत्ति अध्‍याय 7 और 8।

यीशु मसीह : परमेश्वर का पुत्र और मनुष्य का पुत्र

यीशु मसीह अद्वैत है : केवल वही एक ऐसा व्यक्ति है, जिसका पिता, परमेश्वर है और माता, एक मनुष्य है। वह दोनों "परमेश्वर का पुत्र" और "मनुष्य का पुत्र" है।

लूका 1: 26-38

परमेश्वर ने स्वर्गदूत जिब्राईल को यह बताने के लिए मरियम के पास भेजा कि वह एक बच्चे को जन्म देगीं। उसने, बिना किसी आदमी से सम्बन्ध बनाये यीशु को गर्भ में धारण किया। मरियम परमेश्वर की सामर्थ्य, पवित्र आत्मा, के द्वारा गर्भवती हुई, इसलिए यह बच्चा (यीशु मसीह) परमेश्वर का पुत्र और मरियम का भी पुत्र है।

  1. यह बात महत्वूपर्ण क्यों थी, कि मरियम कुंवारी थी?
  2. मरियम ने कैसा महसूस किया होगा, जब उसने अपनी सहेलियों और परिवार के लोगों को यह बात बतायी होगी, कि वह गर्भवती है? क्या आप सोचते है कि उन सभी ने उस पर विश्वास किया होगा?
  3. एक कुवांरी के द्वारा पुत्र को जन्म दिये जाने के विषय में की गयी, पुराने नियम की एक भविष्यवाणी को ढूंढ़िये? क्या यह भविष्यवाणी यीशु मसीह के जन्म के विषय में है?
  4. यीशु नाम का अर्थ क्या है? (संकेत: मत्ती 1:21)
  5. दाऊद का सिहांसन क्या था (पद 32)? पुराने नियम की किस प्रतिज्ञा के विषय में जिब्राईल बात कर रहा था?
  6. बहुत से लोग ऐसा सोचते है कि यीशु मसीह मरियम के गर्भ में आने से पहले भी विद्यमान था? आप इस दावें का उत्तर कैसे देगें?

इसके बाद, मरियम ने अपने मंगेतर युसूफ से विवाह किया और वह यीशु मसीह का सौतेला पिता बन गया। यीशु मसीह के बाद मरियम ने दूसरे बच्चों को भी जन्म दिया जो यीशु के सौतेले भाई और बहिन थे। (मत्ती 12:46-47; 13:55-56)

परमेश्वर का पुत्र

वैसे तो सभी विश्वासी परमेश्वर के बच्चे है, हमें परमेश्वर के परिवार में स्वीकार कर लिया गया है, लेकिन केवल यीशु मसीह ही परमेश्वर का एकलौता पुत्र है। जब यीशु मसीह ने बपतिस्मा लिया, तो परमेश्वर ने कहा, "यह मेरा प्रिय पुत्र है; उसकी सुनो!” (यूहन्ना 1:12; इफिसियों 1:5; यूहन्ना 3:16; मरकुस 9:7)

किसी भी पुत्र के समान ही, यीशु अपने पिता की विशेषताओं का उत्तराधिकारी हुआ। उसने हमें वही करके दिखाया जो उसके पिता को पसन्द था। इसलिए वह कहता है "जिसने मुझे देखा उसने पिता को देखा।" इसलिए क्योंकि हम परमेश्वर को नहीं देख सकते, हम उसके पुत्र यीशु मसीह के चरित्र और उसके कार्यो को देखकर ही जान सकते है कि परमेश्वर कैसा है।

कुछ सम्बन्धित पद

परमेश्वर का पुत्र: भजन संहिता 2; मत्ती 3:17; 8:29; 14:33; 16:16; 17:5; 26:63-64; 27:54; मरकुस 1:1; 3:11; 9:7; 15:39; लूका 1:35; 4:41; 22:70; यूहन्ना 1:39,49; 5:18-19; 10:31-36; 11:27; 14:9; 19:7; 30:31; प्रेरितों के काम 9:20; रोमियों 1:4; इब्रानियों 1:5; 3:6; 4:14; 5:5-8; 1 यूहन्ना 4:15; 5:5।

परमेश्वर के तुल्य नहीं: यूहन्ना 5:30; 8:28; 12:49; 14:10,28।

परमेश्वर के साथ एक: यूहन्ना 10:30; यूहन्ना 17:20-22।

मनुष्य का पुत्र: मत्ती 16:13; 27-28; मरकुस 2:28; लूका 22:69; यहून्ना 9:35-37; फिलिप्पियों 2:7-8; इब्रानियों 2:14; 4:15; 5:2; 8-9; प्रकाशितवाक्य 1:13-14।

सदैव परमेश्वर की योजना का हिस्सा: यहून्ना 17:5; 1पतरस 1:20; प्रकाशितवाक्य 13:8।

हम परमेश्वर को नहीं देख सकते, हम उसके पुत्र यीशु मसीह के चरित्र और उसके कार्यो को देखकर जान सकते है कि वह कैसा होगा।

यीशु मसीह ने जब स्वंय को परमेश्वर का पुत्र कहा तो यहूदी इस बात को नहीं समझे। उन्होनें ने सोचा कि वह अपने आप को परमेश्वर के तुल्य बता रहा था। और इस बात से यहूदी इतने क्रोधित हुए कि वे यीशु मसीह को मारना चाहते थे। यूहन्ना के सुसमाचार में हम पढ़ते है,

"इस कारण यहूदी और भी अधिक उसके मार डालने का प्रयत्न करने लगे, कि वह न केवल सब्त के दिन की विधि को तोड़ता, परन्तु परमेश्वर को अपना पिता कह कर, अपने आप को परमेश्वर के तुल्य ठहराता था।" (यूहन्ना 5:18)

लेकिन यीशु ने यहूदियों को समझाते हुए उत्तर दिया, "इस पर यीशु ने उनसे कहा, मैं तुम से सच सच कहता हूं, पुत्र आप से कुछ नहीं कर सकता, केवल वह जो पिता को करते देखता है, क्योंकि जिन जिन कामों को वह करता है उन्हें पुत्र भी उसी रीति से करता है।" (यूहन्ना 5:19)

यीशु मसीह परमेश्वर के तुल्य नहीं था। उसने कहा, "मेरा पिता मुझ से बड़ा है।" और बहुत बार उसने कहा कि वह अपने पिता के अधीन है। (यूहन्ना 14:28; यूहन्ना 5:30; 8:28; 12:49; 14:10)

यीशु मसीह ने यह भी कहा कि, "मैं और पिता एक है।" इसका अर्थ यह नहीं है कि वे दोनों एक ही व्यक्ति थे, बल्कि विचारों और उद्देश्य में एक थे। बाद में यीशु मसीह ने प्रार्थना की, कि हमें भी ठीक वैसे ही परमेश्वर के साथ एक होना चाहिये। (यूहन्ना 10:30; यूहन्ना 17:20-22)

मनुष्य का पुत्र

यीशु मसीह की माता एक मनुष्य थी और वह स्वंय भी एक मनुष्य था। और यीशु मसीह ने स्वंय भी इस बात को कहा कि वह मनुष्य का पुत्र है।

सामान्यत: एक मनुष्य में जो कमजोरियां होती है वह यीशु मसीह में भी थी। वह थकता था और उसे आराम की आवश्यकता होती थी। जब लाजरस की मृत्यु हुयी तो उसे भी दुख हुआ। क्रूरता और अन्याय पर उसे भी क्रोध आया। मृत्यु के समय उसने कहा, "अब मेरा जी व्याकुल हो रहा है" और उसने परमेश्वर से उसको क्रूस की मृत्यु से बचाने के लिए प्रार्थना की। (यूहन्ना 4:6; 11:35; मरकुस 3:5; यूहन्ना 12:27)

सामान्य मनुष्य के समान ही उसकी भी परीक्षायें हुयी।

"क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहीं, जो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दुखी न हो सके; वरन्‌ वह सब बातों में हमारी नाई परखा तो गया, तौभी निष्पाप निकला।" (इब्रानियों 4:15)

इसलिए जब भी हम परीक्षाओं में पड़े तो हमें यह विश्वास रखना चाहिये कि यीशु मसीह हमारी दशा को समझता है क्योंकि वह भी हमारी नाई परखा गया। विशेष बात यह है कि यीशु मसीह हमारे समान परीक्षाओं में नहीं गिरा। उसने पापरहित और श्रेष्ठ जीवन जीया।

यीशु मसीह ने धार्मिकता को पूरा करने के लिए व्यक्तिगत रूप से प्रयास किये।

"और पुत्र होने पर भी, उस ने दुख उठा उठा-कर आज्ञा माननी सीखी। और सिद्ध बनकर, अपने सब आज्ञा माननेवालों के लिये सदा काल के उद्धार का कारण हो गया।" (इब्रानियों 5:8-9; 1 पतरस 2:21-24 भी देखें)

निष्पाप होने के लिए उस पर कोई दबाव नही था, बल्कि उसने प्रेम और विश्वसनीय आज्ञाकारिता न मिलने पर भी एक सिद्ध जीवन जीया। परमेश्वर का पुत्र होने पर भी उसने, "अपने आप को ऐसा शून्य कर दिया, और दास का स्वरूप धारण किया, और मनुष्य की समानता में हो गया। और मनुष्य के रूप में प्रगट होकर अपने आप को दीन किया, और यहां तक आज्ञाकारी रहा, कि मृत्यु, हां, क्रूस की मृत्यु भी सह ली।" (फिलिप्पियों 2:7-8)

परमेश्वर की योजना

यीशु मसीह, परमेश्वर की इस जगत के लिए योजना का, केन्‍द्र बिन्‍दु था। यीशु मसीह हमेशा ही परमेश्वर के मन (पृथ्‍वी के लिए योजना) में थे, लेकिन यीशु मसीह मरियम के गर्भ में आने से पहले कही भी विद्यमान नहीं था। पतरस लिखता है: "उसका ज्ञान तो जगत की उत्पत्ति के पहिले ही से जाना गया था, पर अब इस अन्तिम युग में तुम्हारे लिए प्रगट हुआ।" (1पतरस 1:20)

बाईबल यीशु मसीह को, परमेश्वर की इस पृथ्वी के लिए वास्तविक योजना का, एक भाग बताती है। उदाहरण स्वरूप, प्रकाशितवाक्य यीशु मसीह का वर्णन "एक ऐसे मेमने के रूप में करती है जो जगत की उत्पत्ति के समय से घात हुआ है।" (प्रकाशितवाक्य 13:8) इसका अर्थ है कि यीशु मसीह की मृत्यु की योजना, परमेश्वर के मन में इस जगत की सृष्टि से पहले ही थी। ऐसा ही यीशु मसीह ने भी कहा, "और अब, हे पिता, तू अपने साथ मेरी महिमा उस महिमा से कर जो जगत के होने से पहिले, मेरी तेरे साथ थी।" (यूहन्ना 17:5)

दूसरे शब्दों में, यह समय यीशु मसीह के लिए उस महिमा को प्राप्त करने का था, जो परमेश्वर ने प्रारम्भ ही से अपने पुत्र के लिए ठहरायी थी।

यीशु मसीह, जो कि परमेश्वर की योजना का केन्द्र बिन्दु था, कहता है कि, वह प्रारम्भ से ही परमेश्वर की योजना में और मन में था, न कि भौतिक रूप से उपस्थित था। पौलुस कहता है कि परमेश्वर का "अनुग्रह हमें यीशु मसीह में सनातन से दिया गया।" (2 तिमुथियुस 1:9; इफिसियों 1:4-5 भी देखें) यह सत्य है, कि हम भौतिक रूप से उस समय विद्यमान नहीं थे, बल्कि केवल परमेश्वर के मन और उसकी योजना में थे।

सारांश

यीशु मसीह प्रारम्भ से परमेश्वर की योजना में था, यद्यपि वह पवित्र आत्मा की सामर्थ्‍य के द्वारा, मरियम के गर्भ में आने से पहले, विद्यमान नहीं था। वह मनुष्य और परमेश्वर दोनों का पुत्र है। उसे बहुत सी विशेषतायें अपने पिता से उत्तराधिकार में मिली और उसने परमेश्वर के गुणों को प्रदर्शित कर, हमें यह दिखाया कि, परमेश्वर कैसा है। मानवीय कमजोरियां और परीक्षायें भी उसे उत्तराधिकार में मिली, लेकिन उसने कभी पाप नहीं किया।

विचारणीय प्रश्न

  1. निम्न में से किस प्रकार यीशु मसीह हमसे भिन्न था?
    • उसने कभी पाप नहीं किया।
    • वह कभी पाप कर ही नहीं सकता था।
    • वह परमेश्वर का प्रिय पुत्र था।
    • धर्मी बनने के लिए परमेश्वर द्वारा उस पर दबाव दिया गया।
    • धर्मी बनने में परमेश्वर ने उसकी मदद की।
  2. निम्न में से किस प्रकार यीशु मसीह हमारे समान था?
    • वह हमारे समान परखा गया और मानवीय अनुभवों को प्राप्त किया।
    • जब वह जवान था तो उसने पाप किया।
    • वह मनुष्य था।
  3. यूहन्ना 1:1-18 पढ़े।
    1. पद 1 को आप किस प्रकार समझते है?
    2. यीशु मसीह परमेश्वर का `वचन´ किस प्रकार था (पद 14)?
    3. यीशु मसीह ने अपने पिता को किस प्रकार प्रगट किया (पद 18)?
  4. कुलुस्सियों 1:15-18 पढ़े। क्या यह ऐसा बताता है कि यीशु मसीह ने पृथ्वी की सृष्टि की? यदि नहीं, तो इसका अर्थ क्या है?
  5. यूहन्ना 8:58 में, जब यीशु मसीह कहता है, कि पहिले इसके कि इब्राहीम उत्पन्न हुआ मैं हूं, तो इसका क्या अर्थ है?

‘यीशु मसीह : परमेश्वर का पुत्र और मनुष्य का पुत्र’ (Jesus – Son of God or Son of Man)
is taken from ‘The Way of Life,’ edited by Rob J. Hyndman

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दि क्रिस्टडेलफियन
पो. बा. न. -- 10
मुजफ्फरनगर (यूपी) -- 251002

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