तेरा वचन मेरे पांव के लिये दीपक, और मेरे मार्ग के लिये उजियाला है। भजन संहिता 119:105
जवाबदेयता (Accountability)
डेनियल वेबस्टर से जब पूछा गया कि कभी भी उसके मस्तिष्क में आयी सबसे बडी सोच क्या थी, तो उसने उत्तर दिया: "सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए मेरी जवाबदेही।" बहुत से लोगों में यह सोच जाहिर नही होती, और कम से कम उनकी जीवन शैली से तो ऐसा बिल्कुल भी नही लगता है। उनकी जीवन शैली से ईश्वर के प्रति जवाबदेही की सोच व्यक्त नही होती बल्कि ऐसी झलक मिलती है कि "खाओं, पियो और शादी करो क्योंकि कल हम मर जायेंगे।"
जब हम ईश्वर की महानता को व्यक्त करना बंद कर देते है तो हमें यीशु मसीह के द्वारा कही गयी उस बात को याद करना चाहिये कि, "क्या पैसे में दो गोरैये नही बिकती? तौभी तुम्हारे पिता की इच्छा के बिना उन में से एक भी भूमि पर नही गिर सकती" तो अब हम समझ सकते है कि जो कुछ भी हम करते है परमेश्वर उसको जानता है।
पूरा संसार परमेश्वर के प्रति जवाबदेह है, क्योंकि वह जानता है कि गोरैया कब गिरती है, तो भी यह गोरैया का अन्त होता है। यही स्थिति अधिकांश मनुष्यों के साथ है। वे रेगिस्तान की हवा में खिलने वाले फूल की तरह जीते है और मर जाते है। वे ऐसे है जैसे पहले कभी नही थे।
जब हम इस बात पर विचार करते है कि परमेश्वर का ज्ञान रखने के द्वारा हमारी स्थिति बदल जाती है और हम परमेश्वर के प्रति जवाबदेह हो जाते है और उसकी ओर से मिलने वाले अनन्त जीवन के महिमामय पुरस्कार को पाने के योग्य हो जाते है, जिसे वह उन लोगों को देता है जो उसको जानते है और उसकी आज्ञाओं को मानते है, तो यह विचार वास्तव में हमारे मस्तिष्क में अब तक आयी सोच में सबसे बडी सोच होती है।
हमारे किराये के उस हॉल में जिसमें हमारी रविवार की सभा होती है एक चिमनी है जिस पर लिखा कि "ज्ञान शक्तिशाली है"। जब हम परमेश्वर के ज्ञान की इस शक्ति को पहचान लेते है तो यह वास्तव में एक चौंकाने वाला सत्य है। यह वह ज्ञान है जो उद्धार के लिए बुद्धिमान बनाता है। यह ज्ञान इतना शक्तिशाली है कि यह अन्त के दिन मुर्दो को जीवित कर उनका पुर्नरूत्थान करेगा। यह ज्ञान इतना शक्तिशाली है कि यह हमें सर्वशक्तिमान परमेश्वर के प्रति जवाबदेह बनाता है। याकूब बताता है कि, "जो कोई भलाई करना जानता है और नही करता, उसके लिये यह पाप है" अब प्रश्न यह है कि जब हमें परमेश्वर के प्रति अपनी जवाबदेही का ज्ञान हो जाता है तो हमें क्या करना चाहिये? और हमें किस प्रकार कार्य करना चाहिये? पौलुस ने रोमियों को चेतावनी दी कि,"सो हम में से हर एक परमेश्वर को अपना अपना लेखा देगा।"
यीशु मसीह ने कहा, "जो जो निकम्मी बातें मनुष्य कहेंगे, न्याय के दिन हर एक बात का लेखा देंगे। क्योंकि तू अपनी बातों के कारण निर्दोष और अपनी बातों ही के कारण दोषी ठहराया जाएगा।" तो क्या हमारे जीवन से इस बात की झलक मिलती है कि जो बात यीशु ने इस पद में कही उसे हम समझ गये है? इस बात को जानते हुए पौलुस भी चेतावनी देते हुए कहता है कि, "तुम्हारा वचन सदा अनुग्रह सहित और सलौना हो, कि तुम्हें हर मनुष्य को उचित रीति से उत्तर देना आ जाए।"
याकूब ने भी हमें इस विषय में चेताया कि अपनी जबान के द्वारा हम किस प्रकार समस्याओं में पड़ सकते है। जब हम इस बात पर विचार करते है कि परमेश्वर न केवल जो हम कहते है उसको जानता है बल्कि हम जो सोचते है उसको भी जानता है तो निश्चय ही परमेश्वर के प्रति हमारी जवाबदेही की यह एक ऐसी सोच है जिसे हमें कभी नही भूलना चाहिये। हम ऐसे मूर्ख सेवक ना बने जो यह जानता था कि वह अपने स्वामी के प्रति जवाबदेह है तो भी उसने अपने तोडे को लेकर मिटटी में छिपा दिया। वह जानता था कि उसका स्वामी लौटकर आयेगा। वह जानता था कि वह उस तोडे के विषय में अपने स्वामी के प्रति जवाबदेह है। लेकिन यह सब जानते हुए भी उसने कुछ नही किया। इसलिए हमें प्रभु का ऐसा मूर्ख सेवक नही होना चाहिये जिसने अपने तोडे को मिटटी में छिपा दिया था। हमें हमेशा प्रयास करना चाहिये। परमेश्वर बढाता है लेकिन यदि हम बैठे रहेंगे तो वह हमें नही देगा।
यह सच है कि ज्ञान शक्तिशाली है। पौलुस को यीशु मसीह और उनके पुर्नरूत्थान की शक्ति को जानने की इच्छा थी। विश्वास के समान ही केवल ज्ञान होना भी व्यर्थ है।
वास्तव में पतरस कहता है कि,"धर्म के मार्ग का न जानना ही उन के लिए इस से भला होता, कि उसे जानकर, उस पवित्र आज्ञा से फिर जाते।" क्योंकि हम जानते है, और हम जानते है कि हम जवाबदेह है तो आओ हम परमेश्वर की सहायता से, अपने ज्ञान के द्वारा कार्य कर, अपना मन फिराये ताकि यीशु के आने पर वे प्रसन्नता से हमें कहे कि "बहुत अच्छे।"
‘जवाबदेयता (Accountability) is taken from ‘Minute Meditations’ by Robert J. Lloyd
परमेश्वर का प्रेरित वचन
(God's inspired word)
बाईबल की 66 पुस्तकें विशेष क्या है? क्या परमेश्वर ने अन्य दूसरी पुस्तकें भी लिखी है? इस अंक में हम "प्रेरणा" पर विचार करेंगे जिसके द्वारा परमेश्वर ने बाईबल को लिखा।
मुख्य पद : 2 पतरस 1:12–2:3
अपने जीवन के अन्तिम समय में प्रेरित पतरस ने अपना दूसरा पत्र लिखा जिसमें प्रथम शताब्दी के विश्वासियों के लिए कुछ अन्तिम निर्देश उनहोंने लिखें। विशेष रूप से उन्होंने झूठें उपदेशकों (2:1) के विषय में चेतावनी दी जो उनके बीच में उठ खडे होंगे और मनगढंत कहानियां (2:3) सुनायेंगे। इसके विपरीत भविष्यदक्ताओं और प्रेरितों ने स्वंय परमेश्वर की बातों को बताया। पतरस ने बताया कि उनके सन्देश की दो मजबूत नींव है: उसके गवाह जिन्होंने यीशु मसीह के विषय में गवाही दी और भविष्यदक्ताओं की गवाही।
- पदों 1:16-18 में पतरस किस घटना के विषय में बता रहे है?
- भक्तजन "पवित्र आत्मा के द्वारा उभारे जाकर परमेश्वर की ओर से बोलते थे" (1:21) क्या इसका अर्थ यह है कि जो काम उन्होंने किये उनको बोलने या लिखने का चुनाव उनके पास नही था?
- क्या पतरस अपने स्वंय के शब्द लिख रहा है या परमेश्वर के?
- विश्वासी एक झूठे उपदेशक और पतरस जैसे एक सच्चे प्रेरित के बीच में कैसे अन्तर कर सकते है?
परमेश्वर का वचन
प्रेरणा का शाब्दिक अर्थ "परमेश्वर की प्रेरणा" है। बाईबल "प्रेरित" है क्योंकि इसके शब्द स्वंय परमेश्वर की प्रेरणा से लिखे गये। प्रेरित पौलुस इसके विषय में इस प्रकार लिखता है:
“हर एक पवित्र शास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये लाभदायक है।” (2 तीमुथियुस 3:16-17)
इसलिए बाईबल किसी मनुष्य के द्वारा नही बल्कि स्वंय परमेश्वर के द्वारा लिखी गयी। जिन लोगों ने इसे लिखा उन्होंने अपने शब्दों को नही बल्कि परमेश्वर ने उनके द्वारा अपने शब्दों को लिखवाया। इसलिए पतरस भजन संहिता का वर्णन इस प्रकार करता है: "पवित्र शास्त्र का वह लेख ... जो पवित्र आत्मा ने दाऊद के मुख से।" (प्रेरितों के काम 1:16; इब्रानियों 1:1 भी देखें) पौलुस भी जब यशायाह की पुस्तक से लिखता है तो कहता है, "पवित्र आत्मा ने यशायाह भविष्यदक्ता के द्वारा ... कहा ..." (प्रेरितों के काम 28:25)
जब हम बाईबल पढते है तो हमें याद रखना चाहिये कि ये वे शब्द है जिन्हें परमेश्वर चाहता है कि हम पढें। बाईबल में केवल इस बात का इतिहास नही है कि प्राचीन समय में परमेश्वर ने किस प्रकार लोगों के साथ व्यवहार किया; यह एक दिव्य प्रकाशन की पुस्तक भी है। यह परमेश्वर की सच्चाई और उसकी इस पृथ्वी के लिए योजना को, स्वंय परमेश्वर के शब्दों में, हमें बताती है।
परमेश्वर के वचन की सामर्थ
प्रेरित पवित्र शास्त्र परमेश्वर की सामर्थ के द्वारा लिखा गया इसलिए यह पढने वाले पर शक्तिशाली प्रभाव डाल सकता है। इब्रानियों में हम पढते है कि,
"क्योंकि परमेश्वर का वचन जीवित, और प्रबल, और हर एक दोधारी तलवार से भी बहुत चोखा है, और जीव, और आत्मा को, और गांठ गांठ, और गूदे गूदे को अलग करके, वार पार छेदता है; और मन की भावनाओं और विचारों को जांचता है।" (इब्रानियों 4:12)
यीशु ने कहा कि, "जो बातें मैने तुम से कही है वे आत्मा है, और जीवन भी है।" (यूहन्ना 6:63) पौलुस कहता है कि परमेश्वर का वचन "तुम में जो विश्वास रखते हो, प्रभावशाली है।" (1 थिससलुनीकियों 2:13) पवित्र शास्त्र में एक गतिशील सामर्थ है। यदि हम परमेश्वर को खोजते है तो वह अपने वचन के द्वारा हमारा मार्गदर्शन करता है और हमें सिखाता है।
प्रेरणा कैसे कार्य करती है?
विभिन्न तरीकों से परमेश्वर ने बार्इबल के लेखकों को प्रेरित किया। कभी कभी ऐसा लगता है कि परमेश्वर ने उनको इस प्रकार प्रेरित किया कि उन्होंने किसी विषय पर जो जो शब्द बोले वे प्रेरित थे और वे जो बातें उन्होंने लिखी वे हमेशा उन सब को समझते नही थे। जैसा पतरस ने लिखा,
"इसी उद्धार के विषय में उन भविष्यदक्ताओं ने बहुत ढूंढ-ढांढ और जांच-पडताल की, जिन्होंने उस अनुग्रह के विषय में जो तुम पर होने को था, भविष्यवाणी की थी। उन्होंने इस बात की खोज की कि मसीह का आत्मा जो उन में था, और पहिले ही से मसीह के दुखों की और उनके बाद होने वाली महिमा की गवाही देता था, वह कौन से और कैसे समय की ओर संकेत करता था।" (1 पतरस 1:10-11)
जबकि कही दूसरी जगहों पर ऐसा लगता है कि लेखक को अपने विचार व्यक्त करने की अधिक स्वतन्त्रता थी जबकि व्यक्त किये गये ये विचार भी परमेश्वर के द्वारा ही प्रेरित थे। उदाहरण के लिए देखें तो पौलुस के लेखों में उनकी अपनी विशेष शैली और भाषा की झलक मिलती है लेकिन उसके बावजूद भी यह परमेश्वर द्वारा प्रेरित है। चाहे किसी भी तरह से पवित्र आत्मा ने लेखकों को प्रेरित किया हो, लेकिन तो भी हम इस बात से निश्चिन्त है कि परमेश्वर ने उनको गलती नही करने दी। यीशु ने कहा कि, "पवित्र शास्त्र की बात लोप नही हो सकती" (यूहन्ना 10:35) और "पवित्र शास्त्र की बातें पूरी हो" (मरकुस 14:49)
कुछ सम्बन्धित पद
परमेश्वर का वचन | गिनती 15:22-23; 23:26; 24:13; 2 शेमूएल 7:5; यशायाह 18:4; यिर्मयाह 2:1; 20:9; योएल 1:1; प्रेरितों के काम 1:16; 28:25; 2 तिमुथियुस 3:16; इब्रानियों 1:1; 1 पतरस 1:10-12; 2 पतरस 3:15-16 |
परमेश्वर के वचन की सामर्थ | यूहन्ना 6:63; प्रेरितों के काम 20:32; 1 कुरिन्थियों 1:18; 2:4; 1 थिस्सलुनिकियों 2:13; 2 तिमुथियुस 3:16-17; इब्रानियों 1:3; 4;2,12 |
झूठे उपदेशकों की जांच | व्यवस्थाविवरण 13:1-5; 18:21-22; यिर्मयाह 28:9; प्रेरितों के काम 17:11; 1 थिस्सलुनिकियों 5:21; 1 यूहन्ना 4:1; प्रकाशितवाक्य 2:2 |
दुर्भाग्यवश हमारे पास वे मूल दस्तावेज नही है जो लिखे गये थे। बाईबल की प्रत्येक पुस्तक को कई बार विभिनन भाषाओं में अनुवाद किया गया। इस प्रक्रिया में बहुत से ऐसे स्थान है जहां पर नकल करते हुए और अनुवाद करते हुए गलतियां हुयी।
एक नकल करने वाले ने हो सकता है कि एक गलत शब्द या अक्षर लिख दिया और दूसरे नकल करने वाले उस को ऐसे ही नकल करते चले गये। यह समस्या जितनी बडी लोग सोचते थे उससे कही कम है। शास्त्र की नकल करने के लिए एक सख्त नियम बनाया गया जिसका अर्थ था कि शताब्दियों तक नकल करने के बावजूद भी उसमें कोई बदलाव नही हुआ। मृत सागर से मिले लेखों से यह सिद्ध होता है कि नकल करने में बहुत कम गलतियां हुयी।
प्रत्येक संस्करण में अनुवाद की त्रुटियां होती है क्योंकि अनुवादक ऐसे शब्दों का चुनाव करते है जो उनके स्वंय के सैद्धान्तिक विचारों का समर्थन करते है। लेकिन कभी कभी होने वाली इन त्रुटियों का पता लगाने का एक तरीका है कि हम दूसरे संस्करणों को पढें और बाईबल के दूसरे भागों से उसकी तुलना करें।
मृत सागर के लेख (Dead Sea Scrolls): पुराने नियम के ये प्राचीन लेख है जिनका समय 100 ई.पू. से 100 ई. तक है। यरदन के पास मृत सागर से इनको सन् 1947 में खोजा गया।
छिपी पुस्तकें (The Apocrypha)
अधिकांश बाईबलों में 66 पुस्तकें है। लेकिन कुछ बाईबलों में पुराने नियम की कई अतिरिक्त पुस्तकें है। रोमन कैथलिक की अधिकांश बाईबलों के पुराने नियम में 7 अतिरिक्त पुस्तकें है और कुछ दूसरी पुस्तकों में भी कुछ अतिरिक्त भाग है। कुछ बाईबलों में 17 अतिरिक्त पुस्तकें है या पुस्तकों के भाग है। पुराने नियम की इन अतिरिक्त पुस्तकों को अपोक्रिफा या छुपी पुस्तकें कहते है। ये पुस्तकें 200 ईपू और 100 ई के बीच लिखी गयी, जबकि उस समय तक पुराना नियम पूर्ण हो चुका था।
अपोक्रिफा की कुछ पुस्तकें ऐतिहासिक है; उदाहरण के लिए देखें तो 1 मक्केबीस की किताब में यीशु से पहले लगभग 100 से 120 वर्षो का यहूदियों का इतिहास का वर्णन है। दूसरी पुस्तकें पूर्णतया काल्पनिक है:तोबित में एक आदमी की कहानी है जिसका नाम तोबित था और जो अपने एक संरक्षक स्वर्गदूत,रेफेल , के साथ यात्रा करता है और मछली के अंग से असमोदस नाम के एक दानव से युद्ध करता है। दूसरी काल्पनिक कहानी, जूडिथ, में बहुत बडी बडी ऐतिहासिक गलतियां है: उदाहरण के लिए देखें तो, यह बताती है कि नबूकतनेस्सर राजा बाबुल का नही बल्कि निनवे के सिरिया का राजा था। बहुत सी किताबों के विषय में ऐसा झूठा दावा किया जाता है कि वे बाईबल में वर्णित लोगों के द्वारा लिखी गयी। उदाहरण के लिए यदि देखें तो, बेरोच, यिमर्याह के एक मित्र के द्वारा लिखे जाने का दावा करती है जबकि यह उसके बहुत बाद में लिखी गयी। और इसी प्रकार सभोपदेशक और सुलेमान की बुद्धिमानी भी स्वंय सुलेमान के द्वारा नही लिखी गयी बल्कि सुलेमान से सैकडो सालों के बाद लिखी गयी।
छुपी पुस्तकों अर्थात अपोक्रिफा की कोई भी पुस्तक किसी भविष्यदक्ता की ओर से नही आयी और इसीलिए उनको प्रेरित पुस्तकों के रूप में स्वीकार नही किया गया। यहूदी कभी कभी इन्ही पुस्तकों का हवाला देते है लेकिन यह ठीक उसी प्रकार है जैसे हम कभी कभी शेक्सपीयर की बातों का हवाला देते है – अच्छा साहित्य है लेकिन निश्चय ही यह परमेश्वर का कार्य नही है।
पवित्र शास्त्र को जांचना
हम इस बात को कैसे जान सकते है कि पवित्र शास्त्र की कौन सी पुस्तक प्रेरित है और कौन सी नही? कुछ बाईबल लेखकों ने स्पष्ट किया है; "यहोवा का यह वचन ..." (यिर्मयाह 2:1) दूसरी पुस्तकें प्रेरित होने का दावा नही करती है लेकिन शीघ्र ही इस बात की पहचान हो गयी कि वे पुस्तकें प्रेरित है क्योंकि जिन लोगों ने उन पुस्तकों को लिखा उन को परमेश्वर का भविष्यदक्ता स्वीकार कर लिया गया।
बाईबल इस बात को जांचने के दो तरीके बताती है कि क्या भविष्यदक्ता परमेश्वर की ओर से प्रेरित था या नही:
- उसके द्वारा की गयी भविष्यवाणियां सच होनी चाहिये। (व्यवस्थाविवरण 18:21-22)
- उसे परमेश्वर से दूर जाने की शिक्षा लोगों को नही देनी चाहिये। (व्यवस्थाविवरण 13:1-5)
मूसा, यशायाह और एज्रा जैसे लोगों ने परमेश्वर की ओर से दर्शन पाया और भविष्यवाणिंया की जो सच हुयी। इसलिए जो कुछ उन्होंने कहा और जो कुछ लिखा उसको परमेश्वर का कार्य माना गया। उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकों से पुराना नियम बना है जो यीशु मसीह के समय में सम्पूर्ण था।
नये निमय के लेखों को भी "पवित्र शास्त्र" का दर्जा मिलने में अधिक समय नही लगा। उदाहरण के लिए पौलुस द्वारा तिमुथियुस को पहला पत्र लिखे जाने के समय तक लूका के सुसमाचार को "पवित्र शास्त्र" के रूप में स्वीकार कर लिया गया। इसी प्रकार जब पतरस ने अपना दूसरा पत्र लिखा तो उस समय तक पौलुस के लेखों को "पवित्र शास्त्र" के रूप में स्वीकार कर लिया गया। (देखें 1 तिमुथियुस 5:18, 2 पतरस 3:15-16।)
क्योंकि बाईबल में हमारे लिए परमेश्वर द्वारा दिये गये निर्देश है तो हम इस बात पर पूर्ण विश्वास कर सकते है कि इसमें वे सब पुस्तकें है जिनकी हमें आवश्यकता है।
सांराश
- बाईबल की 66 पुस्तकें परमेश्वर के प्रेरित वचन है।
- परमेश्वर ने एक त्रुटिरहित संदेश देने के लिए लेखकों को प्रेरित किया।
- बाईबल को नकल और अनुवाद करते हुए कुछ छोटी त्रुटियां हुयी।
- परमेश्वर का वचन शक्तिशाली है, हमारे जीवन को दिशा देता है और उसमें भविष्य का दर्शन है।
विचारणीय पद
- यदि कोई आपसे कहें कि, "आप बाईबल पर कैसे विश्वास कर सकते है? यह गलतियों और विरोधाभाषों से भरी है।" तो आप उसको क्या उत्तर देंगे?
- 1 यूहन्ना 4:1 में हमसे कहा गया है कि, "हर एक आत्मा की प्रतीति न करो; वरन आत्माओं को परखो, कि वे परमेश्वर की ओर से है कि नही; क्योंकि बहुत से झूठे भविष्यद्वक्ता जगत में निकल खडे हुए है।"
- उनको जांचने का क्या तरीका है?
- यदि आज कोई परमेश्वर की ओर से प्रेरित होने का दावा करता है तो उसके दावें को जांचने का क्या तरीका है?
अन्य खोज
- भविष्यदक्ताओं ने यह बात सिद्ध करने के लिए कि वे परमेश्वर की ओर से प्रेरित है, कम समय में पूरी होने वाली भविष्यवाणियां की। यहेजकेल द्वारा की गयी ऐसी ही एक भविष्यवाणी हम यहेजकेल 12:12-13 में देख सकते है। यह किस प्रकार पूरी हुयी? (संकेत : 2 राजा 25 अध्याय देखें।)
- क्या बाईबल के अलावा किसी ओर तरीके से भी परमेश्वर हमसे बातें करता है? अपनी उत्तर की पुष्टि के लिए बाईबल के पदों को दें।
‘परमेश्वर का प्रेरित वचन’ (God's inspired word) is from ‘The Way of Life’, ed. by Rob J. Hyndman
स्वर्गीय भण्डार से प्रबन्ध (1)
(Provisions from a Heavenly Store – Part 1)
20वीं शताब्दी में जो बदलाव हुए है, विशेषकर पिछले 50 वर्षो में, उनमें से एक बदलाव हमारे खरीदारी करने के तरीके में भी हुआ है। पहले जब आप खरीदारी करने जाते थे तो आप दुकान पर जाकर दुकानदार से उस चीज को मागंते थे और दुकानदार उस चीज को देखता था कि आपको देने के लिए वह चीज उसके पास उपलब्ध है या नहीं। खरीदारी का यह तरीका सम्बन्धों पर आधारित था – दुकानदार काउण्टर के पीछे रहता था और आप दुकान में आकर जो आपको चाहिये वह उससे मांगते थे।
आजकल का खरीदारी का तरीका यह हो गया है कि हममें से अधिकांश किसी डिपार्टमेन्टल स्टोर या किसी सुपरमार्केट में जाते है और उसमें स्वंय घूमकर जो हमें चाहिये उसको वहां रखी अलमारियों में से ले लेते है। तो अब किसी वस्तु को खरीदने के लिए किसी से कुछ पूछने की जरूरत ही नही रह गयी है, अब आप बस स्टोर में जाये और जो चाहिये वह ले और जाते हुए उसका मूल्य चुका दें।
इस तरह खरीदारी करने के तरीके में एक समस्या यह है कि जो हमें चाहिए उसके लिए हमें सभी अलमारियों में खोजना पड़ता है। जिन वस्तुओं की वास्तव में आपको आवश्यकता है उनकी लिस्ट लेकर जाना आवश्यक नही है। हममें से कुछ लोग कभी – कभी खरीदारी केवल मौज मस्ती के लिए करते है क्योंकि जो हम चाहते है वह हमें मिल जाता है।
हमारी इस प्रकार की मानसिकता, हमारे स्वर्गीय पिता से हमारे सम्बन्ध से बहुत अधिक मिलती जुलती हो सकती है। हमारे खरीदारी करने के इस तरीके के समान ही, हमारे सामने ऐसी स्थिति हो सकती है कि जब हम यह सोचते है कि एक बार यदि हम मसीह में विश्वास के द्वारा ईश्वर के बच्चे हो गये है और हमने मसीह में बपतिस्मा ले लिया है तो जो भी हम चाहते है वह सब हमारा स्वर्गीय पिता हमें देगा – क्योंकि स्वर्ग और पृथ्वी उसी की है और इसलिए जो कुछ भी हमें पसन्द है हम स्वर्गीय पिता के इस स्टोर से ले सकते है।
लेकिन ऐसा नही है प्रभु यीशु मसीह या बाईबल हमें ऐसा नही सिखाती है। खरीदारी करने का एक दूसरा तरीका भी है जिसके विषय में हमने पहले बातें की थी और यह तरीका आज भी भारत में अधिकांश दुकानों में अपनाया जाता है; हम दुकानदार के पास जाते है और जो हमें चाहिये हम उससे मांगते है और वह वस्तु यदि उसके पास उपलब्ध है तो वह उसको हमें देता है और हम उसका मूल्य उसको दे देते है। तो अब जब हम स्वर्गीय पिता के स्टोर के विषय में बातें करते है तो बिल्कुल ऐसी स्थिति भी हमारे सामने नही है जैसी खरीदारी के इस तरीके में है लेकिन फिर भी इससे काफी मिलती जुलती है।
यदि हम याकूब की पुस्तक के पहले अध्याय में देखें तो हम पाते है कि;
“क्योंकि हर एक अच्छा वरदान और हर एक उत्तम दान ऊपर ही से है, और ज्योतियों के पिता की ओर से मिलता है, जिस में न तो कोई परिवर्तन हो सकता है, और न अदल बदल के कारण उस पर छाया पड़ती है” (याकूब 1:17)
जो भी “अच्छा” है, जो भी “उत्तम” है, वह सब पिता की ओर से है। ईश्वर अच्छा है और इसलिए जो कुछ ईश्वर की ओर से है वह अच्छा है। र्इश्वर उत्तम है, इसलिए जो कुछ ईश्वर की ओर से है वह उत्तम है।
आईये अब हम उन पदों को देखें जिनके विषय में लोग अक्सर बात करते है कि ईश्वर ने हमें क्या दिया है; वे पद जिनमें प्रभु यीशु मसीह कहते है कि, “मांगों तो तुम पाओगे, ढूंढों तो तुम्हें मिलेगा, खटखटाओं तो तुम्हारे लिये खोला जायेगा” – और बहुत से लोग, यहां तक कि कभी कभी हम भी, ऐसा ही सोचते है कि प्रभु यीशु मसीह इन पदों के द्वारा यह सीखा रहे है कि जो कुछ भी हम ईश्वर से मांगेंगे वह हमें मिल जायेगा।
आईये हम उन पदों को देखें:
“मांगो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढ़ूंढो, तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा। क्योंकि जो कोई मांगता है, उसे मिलता है; और जो ढ़ंढता है, वह पाता है; और जो खटखटाता है, उसके लिये खोला जाएगा” (मत्ती 7:7-8)
यह पढ़कर ऐसा लगता है कि जो कुछ तुम ईश्वर से मांगोगें तुम्हें मिल जायेगा; वह हर एक दरवाजा जिसे तुम खटखटाओगे खुल जायेगा; वह हर एक चीज जिसे तुम खोजोगे तुम्हें मिल जायेगी। लेकिन अपने अनुभव से आप और मैं यह जानते है कि यह सच नही है – वह हर एक चीज जो हम मांगते है हमें नही मिलती है; और अपने जीवन में वह हर एक दरवाजा जिसे हम खटखटाते है स्वत: ही नही खुलता है। अपने जीवन में वह हर एक चींज जो हम चाहते है हमें नही मिलती है।
आईये आगे के पदों को भी पढ़े –
“तुम में से ऐसा कौन मनुष्य है, कि यदि उसका पुत्र उस से रोटी मांगे, तो वह उसे पत्थर दे? वा मछली मांगे, तो उसे सांप दे? सो जब तुम बुरे होकर, अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएं देना जानते हो, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने मांगनेवालों को अच्छी वस्तुएं क्यों न देगा?” (मत्ती 7:9-11)
इसलिए जब हम ईश्वर से कुछ मांगते है तो वह हमें बुरी चीजें नही देगा, बल्कि वह हमें अच्छी चीजें देगा क्योंकि ईश्वर एक प्रेम करने वाला और बुद्धिमान पिता है। इसलिए अक्सर हमारे जीवन में ऐसी स्थिति होती है कि जब हम ईश्वर से कुछ चीजे मांगते है और वह हमें नही मिलती है तो इसका कारण यह है कि वास्तव में हम अपनी अज्ञानता में ईश्वर से रोटी नही बल्कि पत्थर मांग रहे होते है। हम लगातार पाप के द्वारा बहकाये जाते है और किसी ऐसी चीज को रोटी समझ लेते है जो वास्तव में पत्थर है; लेकिन ईश्वर जानता है कि जिस चीज को हम रोटी समझ रहे है वास्तव में वह एक पत्थर है जो हमारे गले में बंधेगा और हमें खींचकर परमेश्वर के राज्य के मार्ग से हटा देगा। इसलिए जब हम, अपनी मूर्खता में, पत्थर मांगते है तो ईश्वर हमें रोटी देता है।
कभी कभी हम ईश्वर से ऐसी चीज भी मांगते है जो हमारे लिए सही है और जिसकी हमें आवश्यकता है और वह वास्तव में हमारे लिए रोटी होती है; और जब हम सही चीज मांगते है तो वह हमें इसे देगा। लेकिन अपने जीवन में हम अधिकांशतया, अपनी अज्ञानतावश, गलत चीजें मांगते है; ये चीजें हमारे लिए पत्थर होती है, और इसलिए हमसे प्यार करने वाला परमेश्वर पिता हमें वह पत्थर ना देकर रोटी देता है क्योंकि रोटी हमारे लिये अच्छी चींज है और इसकी हमें आवश्यकता है। हम अपने जीवन में ऐसी चीजें मांग लेते है जो हमारे लिए एक सांप के समान होती है, एक ऐसा सांप जो हमें मृत्यु के डंक से डसेगा और हमें पाप के मार्ग पर वापिस ले जायेगा। लेकिन ईश्वर हमें यह सांप नही देता है। ईश्वर हमें वह देता है जिससे हमें जीवन मिलता है और हम जीवित रह सकते है और इसलिए वह हमारे लिए सांप नही देता बल्कि हमारे भोजन का प्रबन्ध करता है।
ईश्वर के पास अच्छे उपहारों का भण्डार है और वह अपने बच्चों को अच्छे उपहार देगा। तो अब प्रश्न यह है कि उसके भण्डार में ये अच्छे उपहार क्या है? और हमें इस बात को जानने के लिए एक सही दृष्टिकोण बनाने की आवश्यकता है। अच्छा क्या है? परमेश्वर के पास जो है वह अच्छा है।
“आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था...” (यूहन्ना 1:1)
इस पद में हम देखते है कि परमेश्वर के साथ कुछ है और वह है – वचन। बिल्कुल आरम्भ से वचन परमेश्वर के साथ है। और यह वचन ईश्वर मानवजाति को देना चाहता है ताकि वह मानवजाति के साथ संगति कर सके। किसी के साथ संगति करने के लिए आवश्यक है कि आपकी उससे बातचीत हो, क्योंकि बिना बातचीत किये आप किसी के साथ संगति नही कर सकते है। जब आप किसी से बात नही करते है तो इसका अर्थ है आपने उसको बहिष्कृत कर दिया है और उससे कोई सम्बन्ध नही रखना चाहते है। संगति का अर्थ होता कि अपने विचारों और भावनाओं का आदान प्रदान करना। इसलिए ईश्वर अपने वचन के द्वारा अपने विचारों को प्रकट करता है क्योंकि वह हमसे संगति करना चाहता है। उत्पत्ति की पुस्तक के 3 अध्याय और उसके 8 पद को यदि हम देखें तो यह वास्तव में बहुत ही अच्छा पद है जो आज मानवजाति को चौंकाता है:
"यहोवा परमेश्वर जो दिन के ठंडे समय वाटिका में फिरता था उसका शब्द उनको सुनाई दिया” (उत्पत्ति 3:8)
"उन्होंने यहोवा परमेश्वर का शब्द सुना” यह परमेश्वर का शब्द था जिसके माध्यम से परमेश्वर, आदम और हव्वा के साथ अपने विचारों का आदान प्रदान करता था और वे अदन की वाटिका में उसके साथ संगति करते थे।
इसी प्रकार यह बात हमारे साथ भी लागू होती है; बिना ईश्वर के वचन के हम ईश्वर को नही जान सकते है। और यदि आप ईश्वर को नही जान सकते है तो आप उसके साथ संगति भी नही कर सकते है। यदि आप किसी को नही जानते तो आप उसके साथ संगति नही रख सकते है और उसके साथ अपने विचारों को नही बाँट सकते है। इसलिए 6000 वर्षेा से भी अधिक समय से, जब परमेश्वर अदन की वाटिका में फिरता था, तब से परमेश्वर का वचन पृथ्वी पर है। वास्तव में उस समय से परमेश्वर का वचन हमारे साथ है जब उसने कहा कि,
“तब परमेश्वर ने कहा, “उजियाला हो” और उजियाला हो गया” (उत्पत्ति 1:3)
र्इश्वर ने अपने इन सबसे पहले शब्दों से यह दिखाया कि वह एक ऐसा ईश्वर है जो बातें करना चाहता है। ईश्वर केवल चीजों के विषय में कहता है और वे अस्तित्व में आ जाती है, क्या ऐसा नही है? उत्पत्ति के पहले अध्याय में हम पढ़ते है कि, “ईश्वर ने कहा” ... “ईश्वर ने कहा” ... “ईश्वर ने कहा... ईश्वर अपने वचन के द्वारा अपनी इच्छा और अपने उद्देश्य के विषय में बातें करना चाहता है। और इसलिए भजनकार ने भी लिखा है कि:
“आकाशमण्डल यहोवा के वचन से, और उसके सारे गण उसके मुँह की श्वास से बने... क्योंकि जब उसने कहा, तब हो गया; जब उसने आज्ञा दी, तब वास्तव में वैसा ही हो गया।” (भजन संहिता 33:6,9)
ईश्वर अपने वचन के द्वारा बातें करता है। और इसलिए 6000 वर्षो से उसका यह वचन मनुष्यों को दिया गया है।
आईये हम कुछ ऐसे उदाहरणों को देखें कि किस प्रकार ईश्वर ने अपना वचन हमें दिया है। ईश्वर का वचन हमेशा ऐसे नही मिलता जैसे हम इसे खुले रूप में देखते है बल्कि उस रुप में भी मिलता है जिसकी हम कल्पना भी नही करते है।
आईये 2 इतिहास और उसके 34 अध्याय को देखें। यहां हम एक ऐसे समय को देखते है जब ईश्वर का वचन इस्राएल के लोगों के मनों से निकल गया था। और केवल ये ही नही बल्कि लिखित वचन भी, जो कि ईश्वर के विचारों के संचार का माध्यम है, उनकें पास नही था और खो चुका था; और ईश्वर जानता था कि यह वास्तव में खोया नही था – ईश्वर जानता था कि उसकी व्यवस्था की एक प्रति मन्दिर में छिपी रखी है।
2 इतिहास 34:1-3 में हम पाते है कि योशिय्याह आठ वर्ष की आयु में राज्य करने लगा- और जब वह केवल सौलह वर्ष का था तो वह,
“अपने मूलपुरूष दाऊद के परमेश्वर की खोज करने लगा” (2 इतिहास 34:3)
वह कितनी अच्छी चीज खोज रहा था। वह परमेश्वर को खोज रहा था। और हम देखते है कि उसने जिसकी खोज की वह चीज उसे मिल गयी।
“जब वे उस रूपये को, जो यहोवा के भवन में पहुँचाया गया था, निकाल रहे थे, तब हिल्किय्याह याजक को मूसा के द्वारा दी हुई यहोवा की व्यवस्था की पुस्तक मिली” (2 इतिहास 34:14)
परमेश्वर के वचन में लिखा है कि "ढ़ूंढो तो पाओगे!" और याशिय्याह ने अपने सच्चे हद्वय से ईश्वर को खोजा, और ईश्वर ने उसे अपना वचन दिया ताकि वह ईश्वर के मार्गो को सीख सके। और वह पुस्तक, जो शायद एक किसी पुरानी तिजौरी में या किसी एक धूल भरे कोने में रखी होगी, हमें नही पता कि कितने लम्बे समय से, वह उस समय पर पायी गयी जब ईश्वर ने ऐसा चाहा कि वह मिलें। लेकिन यह उसी समय पर मिली जब किसी ने अपने सच्चे मन से ईश्वर की खोज की।
जब यह पुस्तक पायी गयी तो उसे राजा के सामने लाया गया। लेकिन शापान मंत्री ने, जो उस पुस्तक को राजा के सामने लाया, यह सन्देश सबसे पहले राजा को दिया। शापान मंत्री इस खोज से बिल्कुल भी उत्तेजित नही था। उसने सबसे पहले अपने काम की जानकारी राजा को दी और उसके बाद उसने पुस्तक के विषय में राजा को बताया जो कि पद 18 में लिखा है,
“हिल्किय्याह याजक ने मुझे एक पुस्तक दी है”!
“तब शापान ने उसमें से राजा को पढकर सुनाया। व्यवस्था की ये बातें सुनकर राजा ने अपने वस्त्र फाड़े” (2 इतिहास 34:18-19)
राजा ने जो किया उससे हम समझ सकते है कि व्यवस्था की इन बातों ने उसके हद्वय पर कितना प्रभाव डाला। ईश्वर ने अपने वचन को, योशिय्याह को देने के लिए, संभाल कर रखा। और यह योशिय्याह को दिया गया क्योंकि उसने सच्चे मन से ईश्वर को खोजा। परमेश्वर का वचन बताता है कि ईश्वर अपने मोती सुअरों के सामने नही डालता है। ईश्वर का वचन ऐसे लोगों को देने से कोई लाभ नही है जो उसका आदर नही करते और उसको प्रतिउत्तर नही देते है। और इसलिए यह पुस्तक योशिय्याह को दी गयी।
आईये नये नियम के एक उदाहरण को देखें – प्रेरितों के काम 16 अध्याय में, यहां प्रभु के लिखित वचन नही बल्कि उसके द्वारा बोले गये वचन है। यहां हम कुछ ऐसी चीजों को देखते है जिन्हें स्वाभाविक चीजें कहा जाता है और जिन्होंने एक साथ प्रभु के वचन को पूरा होने में सहायता की।
यह घटना एक स्वप्न या दर्शन से शुरू होती है। पौलुस ने मकिदुनिया के एक व्यक्ति का स्वप्न देखा जो यह कह रहा था कि, “आकर हमारी सहायता कर” (प्रेरितों 16:9) – इसलिए पौलुस और सीलास मकिदुनिया के मुख्य नगर फिलिप्पी गये। जब वे फिलिप्पी पहुँचे तो वहां उनके साथ ऐसी स्वाभाविक घटनायें घटी जिनके द्वारा वे उस व्यक्ति के सम्पर्क में आये जिसको ईश्वर ने चुना था।
जब वे उस शहर में जा रहे थे तो वहां एक युवती उनके पीछे आकर चिल्लाने लगी। यह एक स्वाभाविक घटना लगती है, लेकिन यदि वह लड़की उनके पीछे आकर ना चिल्लाती, और वे उसे अच्छा ना करते, और उस लड़की के स्वामी उनके विरोध में ना होते और उनको जेल में ना डालते, तो उनको उस व्यक्ति से मिलने का अवसर न मिलता जिसे ईश्वर ने हद्वय परिवर्तन के लिए चुना था।
अत: घटनाओं की यह पूरी श्रंखला ईश्वर की योजना थी जिससे कि फिलिप्पी की जेल का वह अधिकारी ईश्वर के वचन को सुन सकें, उस युवती का पौलुस के पीछे चलना, उसको चंगाई देना, अनजाने कर्मचारियों की प्रतिक्रिया, जिन्होंने पौलुस और सीलास को खींचकर जेल में डाल दिया, ये सब ईश्वर के द्वारा ही निर्देशित था। और जेल का वह अधिकारी, जिसे ईश्वर ने चुना था वह, वहां पर था- वह वहां से किसी दूसरी जगह पर कही और दूर नही था – वह छुट्टी पर भी नही था। वह वहां पर था क्योंकि ईश्वर उसके हद्वय को परिवर्तित करना चाहता था, क्योंकि वह ईश्वर के द्वारा चुना हुआ पात्र था। और यदि वह चुना हुआ पात्र था तो उसके लिए ईश्वर का वचन सुनना आवश्यक था। प्रत्येक चुने हुए व्यक्ति को ईश्वर का वचन सुनना जरूरी है।
इन सब घटनाओं की श्रृंखला में अन्तिम घटना एक बड़ा भूकम्प था। और जेल का अधिकारी निराश हो गया, और पौलुस ने उसको आत्महत्या करने से रोका। पौलुस ने जब जेल की भीतरी कोठरी से उस व्यक्ति को आवाज दी तो ईश्वर ने उसकी आवाज को जेल की उस भीतरी कोठरी से उस अधिकारी तक आने दिया ताकि वह आत्महत्या न करें। ईश्वर चाहता था कि वह व्यक्ति जीवित रहे। और अन्तत:
“उन्होंने उसे प्रभु का वचन सुनाया” (प्रेरितों के काम 16:32)
ये सभी घटनाऐं उस अन्तिम घटना का नेतृत्व कर रही थी, कि उस व्यक्ति को ईश्वर का वचन सुनाया जाये। और उस व्यक्ति और उसके परिवार ने अपना मन फिराया और ईश्वर ने अपना वचन उन तक पहुचांने के लिए उस पागल लड़की, स्वार्थी कर्मचारियों, विरोधी शासन का प्रयोग किया।
भारत में 1980 की एक घटना पर विचार करते है। इस वर्ष में भारत में चरण सिंह की जनता सरकार के द्वारा एक विधेयक लाया गया। बहुत लोग उसके समर्थन में थे जिसे “धार्मिक स्वतन्त्रता विधेयक” कहा गया; जिसका अर्थ यह था कि कोई भी धार्मिक बातों का प्रचार, व्यक्तिगत या सार्वजनिक, रूप से नही कर सकता था। पूरे भारत में बहुत से ईसाई लोग इसका विरोध करने के लिए सड़कों पर उतर आये। वे लोग कह रहे थे कि, “यह हमारे साथ भेदभाव है” उन्होंने हमसे भी पूछा – “क्या आप क्रिस्टडेलफिन्स इन प्रदर्शनो में शामिल नही हो रहे है?” हमने उत्तर दिया कि, “नही”। “ईश्वर की इच्छा पूरी हो – यदि ईश्वर इसी प्रकार कुल निश्चित लोगों को उसका वचन सुनने के लिए प्रयोग करना चाहता है, तो वह ऐसा ही करेगा”। जबकि ईश्वर की ऐसी इच्छा थी कि इस तरह का कोई कानून उस समय न बनें, बल्कि खुला प्रचार चलता रहे। ईश्वर ने सरकार में मतभेद पैदा करा दिया, नेताओं में फूट पड़ गयी, इन मतभेदों का इस कानून से कोई सम्बन्ध नही था। और सरकार गिर गयी, और फिर से चुनाव होना तय हुआ और सब इस विधेयक के बारे में भूल गये!
ईश्वर ने अपने तरीके से इस समस्या को हल किया – उसे हमारे विरोध की आवश्यकता नही है। हम ईश्वर की मर्जी को नही जानते लेकिन वह अपने तरीके से कार्य करता है। वह जानता है कि कब हमें स्वत्रंता चाहिये और कब नही। पौलुस जिस शासन के अधीन था वह बहुत ही कठोर था। एक ऐसा शासन जिसमें किसी लड़की की बीमारी को ठीक करने का अर्थ था कि उनको जेल में डाला गया और बेडियों से जकड़ा गया। और इस शासन के विषय में हम कह सकते है कि– ‘कितना भयानक शासन है!’ – लेकिन यह शासन ईश्वर का एक ऐसा औजार था जिसके द्वारा उसने उस व्यक्ति और उसके परिवार को उसका वचन सुनने और उसका प्रतिउत्तर विश्वास और बपतिस्में से देने के लिए उसका नेतृत्व किया। ईश्वर के अपने तरीके है, जो हमारी दृष्टि में अद्भुत है।
‘स्वर्गीय भण्डार से प्रबन्ध’ (Provisions from a Heavenly Store – Part 1) is from ‘Caution! God at work’, by Tim Galbraith
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