तेरा वचन मेरे पांव के लिये दीपक, और मेरे मार्ग के लिये उजियाला है। भजन संहिता 119:105
परमेश्वर को सुनना (Listening to God)
प्रत्येक चीज को इतना क्रमबद्व और त्रुटिरहित बनाया गया है, जैसे कि हमारी पृथ्वी और ब्रहमाण्ड तो अवश्य ही इसका एक बनाने वाला, एक अदभुत डिजाईनर है। इस सृष्टि का इतना क्रमबद्ध होना, इतना त्रुटिरहित होना, इतना सन्तुलित होना, केवल एक दिवय विचार के द्वारा ही बनाया जा सकना सम्भव है। बिना किसी रचियता के इन सब का होना असम्भव है- डा. वर्नहर वोन ब्रोन।
डा. वोन ब्रोन उस घटना के विषय में टिप्पणी करते है जो भजनकार के अनुसार भी स्पष्ट है: आकाश ईश्वर की महिमा का वर्णन कर रहा है: और आकाशमण्डल उसकी हस्तकला को प्रगट कर रहा है। रोमियों में भी लिखा है कि उसके अनदेखे गुण, अर्थात उस की सनातन सामर्थ, और परमेश्वत्व जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के द्वारा देखने में आते है। आधुनिक विज्ञान इन अनदेखो गुणो को जैसे परमाणु और अणुओ की व्यवस्था, जैसे डीएनए को छोटे पैमाने पर और अन्तरीक्ष के ब्लैक होल व ब्रहमाण्ड के विस्तार को बडे पैमाने पर समझ है। इन साधारण तर्को के द्वारा डा. वोन ब्रोन देखते है कि प्रत्येक चीज के इतना सन्तुलित और सुन्दर होने के लिए दिव्य विचारधारा वाले एक सृष्टिकर्ता का होना आवश्यक है। तो भी वैज्ञानिक समुदाय में बहुत से ऐस है जो इस विचार को न केवल अस्वीकार करते है बल्कि नापसन्द भी करते है। एक नास्तिक वैज्ञानिक ने इस बात को स्वीकार किया कि वह विकास में विश्वास रखता है। सृष्टि में नही और ऐसा वह इसलिए नही करता क्योंकि यह तर्कसंगत है और उसकी व्याख्या की जा सकती है बल्कि ऐसा वह इसलिए करता है क्योंकि इसका विकल्प एक सृष्टिकर्ता का होना है जो उसे स्वीकार नही है।
यह वैज्ञानिक अकेला नही है यह आश्चर्यजनक है कि बहुत से ऐसे बुद्धिमान लोग है जो इस बात पर विश्वास करने के लिए कठिन परिश्रम करते है कि: कुछ नही + कोई नही = सब कुछ (Nothing + Nobody = Everything)।
यह केवल तर्कहीन ही नही है बल्कि विज्ञान भी इसका समर्थन नही करता है। विकास में विश्वास करने के लिए एक मजबूत प्रेरणा की आवश्यकता है। यदि हमने स्वंय को बनाया है या हम बिना किसी सोच विचार के किसी प्रकार अस्तित्व में आ गये है, तो कोई भी हमें यह कहने का अधिकार नही रखता कि हमें क्या विश्वास करना चाहिए और किस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहिए। अब या तो एक परमेश्वर है या नही है। यदि परमेश्वर है ही नही तो हमें इस बात के लिए भी चिन्ता करने की आवश्यकता नही है कि उसने क्या कहा। विकास में विश्वास करने वाले लोग जो एक सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता के अस्तित्व को नही मानते वे इसी स्थिति में है। लेकिन यदि एक ईश्वर है तो क्या? यदि एक परमेश्वर है तो या तो वह बोलता है या नही बोलता है यदि एक परमेश्वर है जो नही बोलता तो सुनने के लिए कुछ भी नही है जैसा परमेश्वर के अस्तित्व के संशय रखने वाले लोग कहते है। वे ऐसा सोचते है कि हो सकता है कि एक परमेश्वर हो लेकिन यदि वह नही बोलता तो हम अपने आप को प्रसन्न करने के लिए स्वतन्त्र है।
लेकिन क्या यदि एक बोलने वाला परमेश्वर है तो? यदि ऐसा है तो क्या जो कुछ उसने कहा उसको ना सुनना सही है? आज धर्म और परमेश्वर को त्यागना लोकप्रिय समझा जाता है। इस संसारिक ज्ञान के विषय में पौलुस सही कहता है कि "कहां रहा ज्ञानवान? कहां रहा शास्त्री? कहां इस संसार का विवादी? क्या परमेश्वर ने संसार के ज्ञान को मूर्खता नही ठहराया? ... क्योंकि इस संसार का ज्ञान परमेश्वर के निकट मूर्खता है, जैसा लिखा है; कि वह ज्ञानियों को उनकी चतुराई में फंसा देता है।" परमेश्वर अकसर ज्ञानियों को उनकी चतुराई में फंसा देता है ताकि वे मनुष्य को प्रभावित करने वाले उदाहरण ठहरे। बाबुल का गुम्मट मानवजाति को इकट्ठा करने में असफल हुआ, संसार के बडे बडे शासन जैसे – यूनानी और रोमी सम्राज्य टूट गये, ना डूबने वाला टाइटेनिक डूब गया, दुनिया का सबसे ऊँचा टावर गिर गया, अन्तरिक्ष यान नष्ट हो गये और बडी बडी कम्पनियां बंद हो गयी। यह स्पष्ट है कि मनुष्य का भाग्य उसके नियन्त्रण में नही है।
प्रभु यीशु मसीह यह देखकर प्रसन्न है कि परमेश्वर किस प्रकार उन लोगों को नियंत्रित करता है जो अपने आप को दूसरे लोगों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान समझते है – "उसी घडी वह पवित्र आत्मा में होकर आनन्द से भर गया, और कहा; हे पिता, स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु, मै तेरा धन्यवाद करता हूँ, कि तूने इन बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा रखा, और बालकों पर प्रगट किया: हा, हे पिता, क्योंकि तुझे यही अच्छा लगा।"
त्तो आओ हम स्वेच्छा से अपनरे संसार की उत्पत्ति को नजरअन्दाज ना करे। आओ पौलुस की उस सलाह को माने जो वह एथेने के लोगों को देता है जब वह कहता है कि, "जिस परमेश्वर ने पृथ्वी और उसकी सब वस्तुओं को बनाया ... अब हर जगह सब मनष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है। क्योंकि उस ने एक दिन ठहराया है, जिस में वह उस मनुष्य के द्वारा धर्म से जगत का न्याय करेगा।" हो सकता है कि हम उस दिन अपने आप को उन लोगों के बीच पाये जो धैर्य रखकर अच्छे कार्यो में लगे है और आदर व अमरत्व, महिमा की खोज में है और हो सकता है कि हम भी अनन्त जीवन का उपहार पाये।
‘परमेश्वर को सुनना’ (Listening to God) is taken from ‘Minute Meditations’ by Robert J. Lloyd
क्या आप कुछ भी विश्वास कर सकते है?
(Does it matter what you believe?)
यह बहुत ही महत्वपूर्ण है कि आप क्या विश्वास करते है। हव्वा ने परमेश्वर पर विश्वास नही किया बल्कि सर्प पर विश्वस किया और उसका यह विश्वास उसको मृत्यु की ओर ले गया। कुछ लोग कहते है कि ईमानदार होना ही काफी है, लेकिन हम ईमानदार होते हुए भी गलत हो सकते है। बाईबल हमें बताती है कि हमें क्या विश्वास करना चाहिए और यह महत्वपूर्ण क्यों है।
मुख्य पद: प्रकाशितवाक्य 2:18-29
प्रभु यीशु मसीह ने एशिया के रोमी सम्राज्य की सात कलिसियाओं को पत्र लिखे। “ये पत्र प्रत्येक कलिसिया के आत्मिक दृढता के लिए उनके न्याय को प्रदर्शित करते है। कुछ की प्रसन्नता की गयी है जबकि कुछ की आलोचना की गयी है। थुआतीरा के विश्वासियों को लिखे गये अपने पत्र में प्रभु यीशु मसीह, उनके विश्वास, कार्यो और लगन के लिए, उनकी प्रसन्नसा करते है। इसके बाद वे, स्त्री इजेबेल को, जिसकी शिक्षाऐं गलत है, अपने बीच में रहने देने के लिए, उनकी आलोचना करते है। इस स्त्री को मन फिराने का पर्याप्त अवसर दिया गया था और प्रभु यीशु मसीह नही चाहते कि थुआतीरा के विश्वासी इस स्त्री को अपने बीच में रहने दे या उसकी शिक्षाओं को माने और प्रभु यीशु मसीह न्याय करने की चेतावनी देते है।
- क्या वास्तव में उस स्त्री का नाम इदजेबेल था या उसका व्यवहार पुाले नियम के इजेबेल के समान था इसलिए उसको इजेबेल कहते थे? (1 राजा 21:25-26)
- यदि विश्वासी इजेबेल को अपने बीच में नही रहने देना चाहते थे, तो उनको उसके साथ क्या करना चाहिए था?
- दजेबेल और उसकी शिक्षाओं को मानने वालो के साथ यीशु मसीह क्या करने जा रहे थे?
- विश्वासियों के उद्धार के लिए प्रभु यीशु मसीह उनसे क्या चाहते है?
- इजेबेल की शिक्षाओं में क्या गलत था? उन पदों को ढूढिए जो उसकी शिक्षाओं के विरोध में है।
- क्या दजेबेल और उसके पीछे चलने वालो को क्षमा किया जा सकता है? यदि हाँ तो कैसे?
सच महत्वपूर्ण!
क्या आपने कभी किसी बात पर पूरी ईमानदारी से विश्वास किया कि वो सच है लेकिन बाद में आपको पता चला कि यह तो गलत बात थी? एक छोटा सा उदाहरण देखें तो यदि खाने की किस वस्तु के विषय में आप पूर्णतया निश्चित है कि वह आपको पसन्द नही है लेकिन किसी कारणवश कभी आपको वह खानी पडे और वह आपको अच्छी लगे और आप उसे पसन्द करने लगते है। तो क्या आपका ईमानदारी से किया गया विश्वास सही था? बिल्कुल नही। ईमानदारी से विश्वास करना कभी भी पूर्णतया सही होने का एक विकल्प नही होता है लेकिन पूर्णतया सही होने के साथ इसका होना आवश्यक है। यदि गलत दिशा में होने पर भी आप इस विश्वास के साथ यात्रा कर रहे है कि आप सही दिशा में चल रहे है, तो आप कभी भी अपने गणतव्य तक नही पहुचेंगे।
इसलिए सच्चाई महत्वपूर्ण है, विश्वास महत्वपूर्ण और ईमानदारी महत्वपूर्ण् है, लेकिन कितना?
पुराने नियम का विश्वास
आरम्भ से ही परमेश्वर ने यह दिखाया कि जो वह कहता है वह सबसे महत्वपूर्ण है। परमेश्वर ने आदम और हव्वा से कहा कि यदि वे अच्छे व बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खायेगें तो अवश्य मर जायेगें। सर्प ने हव्वा को एक अलग कहानी बतायी और हव्वा ने उस पर विश्वास किया। हव्वा का गलत विश्वास उसको मृत्यु की ओर ले गया जैसे परमेश्वर ने प्रतिज्ञा की थी।
मूसा की व्यवस्था में परमेश्वर ने फिर से अपने लोगों से कहा कि उस पर विश्वास करे और जैसे वह चाहता है वैसे उसकी पूजा करें इस्राएल को अपने अनुसार परमेश्वर की पूजा करने की अनुमति नही थी- परमेश्वर ने उनको अपनी सामर्थ्य दिखाई और उनको बताया कि क्या सही है और उसको कैसे प्रसन्न करें।
“तू अपने परमेश्वर यहोवा से ऐसा व्यवहार न करना; क्योंकि जितने प्रकार के कार्यो से यहोवा घृणा करता है और बैर-भाव रखता है, उन सभी को उन्होने अपने देखताओं के लिए किया है।” (व्यवस्थाविवरण 12:31)
पुराने नियम के अन्त में, मलाकी की पुस्तक में, परमेश्वर लेवियों के विषय में शिकायत करता है। उनको इस्रालियों को परमेश्वर के नियम सिखाने का कार्य दिया गया था, इसलिए वे जानते थे कि क्या सही था और क्या गलत था।
“परन्तु तुम लोग धर्म के मार्ग से ही हट गये; तुम बहुतों के लिए व्यवस्था के विषय में ठोकर का करण हुए; तुमने लेवी की वाचा को तोड दिया है, सेनाओं के यहोवा का यही वचन है” (मलाकी 2:8)
क्या उनकी शिक्षायें महत्वपूर्ण थी? बिल्कुल महत्वपूर्ण थी! याजक लोग परमेश्वर के विषय में गलत शिक्षायें दे रहे थ्ज्ञे, इसलिए परमेश्वर क्रोधित था।
केवल मसीही होने से उद्धार
आजकल बहुत से लोग ऐसा कहते है कि अलग-अलग धर्म एक ही गणतवय पर पहुचंने के विभिन्न मार्ग है। ये लोग बताते है कि हिन्दु धर्म, बौध धर्म, इस्लाम धर्म और अन्य दुसरे सब धर्म हमें उद्धार दे सकते है। जब हम बाईबल पढते है तो यह बताती है कि केवल प्रभु यीशु मसीह के द्वारा ही हमारे पापों की क्षमा हो सकती है और उद्धार प्राप्त हो सकता है। इसलिए यदि हम बाईबल को स्वीकार कर लेते है तो हम मसीही हो जाते है। इस जगत का उद्धारकर्ता होने के लिए परमेश्वर ने अपने बेटे को भेजा। यही कारण है कि यह इतना महत्वपूर्ण था कि प्रेरित लोग सभी लोगों को सुसमाचार का प्रचार करने के लिए पूरे विश्व में गये। केवल मसीही होने पर ही उद्धार की आशा है।
केवल सच्चे मसीही होने से उद्धार
मसीहीयों में विभिन्न प्रकार के विश्वास है, और प्रत्येक व्यक्ति को यह निश्चित करने की आवश्यकता है कि उनका विश्वास कितना महत्वपूर्ण है। मुख्य पदों में, प्रभु यीशु मसीह ने दिखाया कि केवल मसीही होना ही पर्याप्त नही था, उनके पीछे चलने वालों को एक सच्चा मसीही होना था। यह एक बहुत ही अच्छी बात भी है- यदि आप किसी के पीछे चलने का दावा कर रहे है तो आप उसके समान बनने का प्रयास कर रहे है।
कुछ सम्बन्धित पद
परमेश्वर सच्चे लोगों के निकट है: | भजन 145:18 |
व्यक्तिगत पूर्णतया सही विश्वास की आवश्यकता: | प्रेरितो 16:13-15; 18:24-27; 19:1-6 |
मेल जोल के लिए सच्चाई में सहभागिता आवश्यक: | 2 कुरिन्थियों 6:14-17; इफिसियों 4:3-6 |
शिक्षक को चाहिए: | |
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2 कुरिन्थियों 4:2; 1 तिमु 6:2-6 |
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मत्ति 15:7-9; गलतियों 1:8-11; कुलुस्सियो 2:20-23; 1 तिमु 4:1-5; इब्रानियों 13:9 |
गलत शिक्षा देने वाले शिक्षक: | |
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अय्यूब 42:7; गलतियों 1:8-11; 2 थिस्स 1:7-9; प्रका 2:14-16, 20-23 |
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1 तिमु 1:3-11 |
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2 यूहन्ना 10-11 |
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मत्ति 23:13-15 |
प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए: | |
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1 कुरि 11:2; 2 थिस्स 2:13-15; 2 यूहन्ना 9 |
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मत्ति 7:21-23 |
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यूहन्ना 4:22-24 |
इसलिए प्रभु यीशु मसीह ने विश्वास के महत्व और हमारे विश्वास की शिक्षा देने के विषय में क्या कहा था?
“और ये व्यर्थ मेरी उपासना करते है, क्योंकि मनुष्यों की विधियों को धर्मोपदेश करके सिखाते है।” (मत्ति 15:9)
“जो मुझ से, हे प्रभु, हे प्रभु कहता है, उन में से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है।” (मत्ति 7:21)
“वैसे ही तेरे यहां कितने तो ऐसे है, जो नीकुलइयों की शिक्षा को मानते है सो मन फिरा, नही तो मै तेरे पास शीघ्र ही आकर, अपने मुख की तलवार से उन के साथ लडूंगा।” (प्रका 2:15-16)
ठीक वैसे ही पौलुस ने भी लिखा
“मुझे आश्चर्य होता है, कि जिस ने तुम्हें मसीह के अनुग्रह से बुलाया उस से तुम इतनी जल्दी फिर कर और ही प्रकार के सुसमाचार की ओर झुकने लगे। परन्तु वह दूसरा सुसमाचार है ही नही: पर बात यह है, कि कितने ऐसे है, जो तुम्हें घबरा देते, और मसीह के सुसमाचार को बिगाडना चाहते है। परन्तु यदि हम या स्वर्ग से कोई दूत भी उस सुसमाचार को छोड जो हम ने तुम को सुनाया है, कोई और सुसमाचार तुम्हें सुनाए, तो स्रापित हो” (गलतियों 1:6-8)
एक सच्चा मसीही होने के लिए आपको यीशु मसीह का अनुसरण करना चाहिए, यीशु मसीह के समान सोचना सीखना याहिए, उनके विश्वास को अपना विश्वास बनाना चाहिए और उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन के नियम बनाना चाहिए। पतरस ने इसे इस प्रकार कहा:
“इसलिए हे प्रियो तुम लोग पहिले ही से इन बातों को जानकर चौकस रहो, ताकि अधर्मियो के भ्रम में फसंकर अपनी स्थिरता को हाथ से कही खो न दो। पर हमारे प्रभु, और उद्धारकर्ता यीशु मसीह के अनुग्रह और पहचान में बढते जाओ” (2 पतरस 3:17-18)
जो कोई अपना क्रूस उठाकर प्रभु यीशु मसीह के पीछे चलता है तो वह उनके पीछे हर कही चलने के लिए, जो उनका विश्वास था वही विश्वास करने के लिए और जैसा उनका जीवन था वैसा ही जीवन जीने के लिए वचनबद्ध हो जाता है।
उद्धार के लिए महत्वपूर्ण विश्वास क्या है?
जबकि यह महत्वपूर्ण है कि हम क्या विश्वास करते है तो क्या हमारा हर बात के विषय में विश्वास महत्वपूर्ण है? कुछ लोग विश्वास करते है कि किसी विशेष कम्पनी की कार दूसरी अन्य कारों से अच्छी है। तो क्या ये विश्वास महत्वपूर्ण है? जब हम जीवन और मृत्यु (जैसे परमेश्वर से हमारा सम्बन्ध) के विषय में विचार करते है तो हमें यह निर्धारित करना होता है कि कौन सा विश्वास महत्वपूर्ण है और कौन सा विश्वास (जैसे अच्छी कम्पनी की कार) उद्धार के लिए महत्वपूर्ण नही है। प्रत्येक यह निर्णय करता है- जो यह कहते है कि यह महत्वपूर्ण नही है, वे साधारणतया निश्चय कर चुके है कि कोई विश्वास महत्वपूर्ण नही है। और इस प्रकार वे परमेश्वर के साथ असहमत है।
यहां कुछ ऐसे विश्वासों (और उनके प्रभाव के द्वारा होने वाले कार्यों) की सूचि है जिनको परमेश्वर ने महत्वपूर्ण बताया है:
- परमेश्वर में विश्वास: रोमियों 1:17; इब्रानियों 11:6
- मन फिराव: प्रेरितों 2:38, 17:30-31; प्रका 2:16
- बपतिस्मा: मरकुस 16:16; प्रेरितों 2:38
- यीशु मसीह प्रभु: प्रेरितों 16:31; रोमियों 10:9-10
- यीशु मसीह हमारे पापों के लिए मारे गये: 1 कुरि 15:3-4; 1पतरस 3:18;
- यीशु मसीह का पुर्नरूत्थान: रोमियों 10:9-10; 1 कुरि 15:4
- गलत आचरण पाप है: 1 कुरिन्थियों 6:9-10; गलतियो 5:19-21
- सच्चाई से प्रेम: 1 कुरिन्थियों 13:6; 2 थिस्स 2:10
इनके अलावा और भी बहुत से विश्वास है। यहां सभी महत्वपूर्ण विश्वासों को देने का प्रयास नही किया गया है बल्कि यह दिया गया है कि जो विश्वास किया जाता है वह महत्वपूर्ण है जैसे यीशु ने भी कहा है:
''और जो कोई तुम्हें ग्रहण न करे, और तुम्हारी बातें न सुने, उस घर या उस नगर से निकलते हुए अपने पावों की धूल झाड डालो। मै तुम से सच कहता हूँ, कि न्याय के दिन उस नगर की दशा से सदोम और अमोरा के देश की दशा अधिक सहने योग्य होगी।" (मत्ति 10:14-15)
सारांश
सच इतना महत्वपूर्ण है कि परमेश्वर ने सम्पूर्ण बाईबल को लिखा कि हम सच्चाई को जान सके। सच्चाई को जानकर हम परमेश्वर की अराधना पूरी ईमानदारी के साथ उसी रीति से कर सकते है जैसे वह चाहता है।
केवल मसीह के द्वारा उद्धार है और केवल सच्ची मसीहत ही हमें बचा सकती हें
यहां हमने यह बताने का प्रयास नही किया कि सच्चा विश्वास क्या है; बल्कि साधारण रूप से यह दिखाने का प्रयास किया कि विश्वास महत्वपूर्ण है।
‘क्या आप कुछ भी विश्वास कर सकते है’ (Does it matter what you believe) is from The Way of Life by R Hyndman
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